________________ 24] [आवश्यकसूत्र खामे मि खमासमणो! देवसियं वइक्कम प्रावस्सियाए पडिक्कमामि–अर्थात हे क्षमाश्रमण ! दिवस सम्बन्धी जो कुछ अपराध हो चुका है उसके लिये क्षमा चाहता हूँ और भविष्य में अापकी प्राज्ञा की आराधना रूप आवश्यक क्रिया के द्वारा अपराध से अलग रहूँगा, अर्थात् अपराध नहीं करने का प्रयत्न करूगा। वन्दना विधि 'इच्छामि खमासमणो वंदिउं जावणिज्जाए निसीहियाए-वन्दना के समय उपयुक्त सूत्रांश बोलकर अवग्रह में प्रवेश करने की आज्ञा के लिये अवग्रह से बाहर ही खड़ा रहकर दोनों हाथ ललाटप्रदेश पर रखकर गुरु के सामने शिर झुकाए / इसका प्राशय यह है कि वह गुरुदेव की आज्ञाओं को सदैव मस्तक पर वहन करने के लिए कृतप्रतिज्ञ है। प्रथम के तीन यावर्त---'अहो'-'काय'-'काय'—इस प्रकार दो-दो अक्षरों से पूरे होते हैं / कमलमुद्रा से अंजलिबद्ध दोनों हाथों से गुरु-चरणों को स्पर्श करते हुए मन्द स्वर से 'अ' अक्षर कहना, तत्पश्चात् अंजलिबद्ध हाथों को मस्तक पर लगाते हुए उच्च स्वर से 'हो' अक्षर कहना, यह पहला प्रावर्तन है / इसी प्रकार 'का....य' और 'का....य' के शेष दो यावर्त भी किए जाते हैं / अगले तीन पावर्त-१. 'जत्ता भे,'२. 'जवणि,' 3. 'ज्जं च भे'--इस प्रकार तीन-तीन अक्षरों के होते हैं / कमल-मुद्रा से अंजलि बांधे हुए दोनों हाथों से गुरुचरणों को स्पर्श करते हुए अनुदात्त मन्द स्वर से 'ज' अक्षर कहना चाहिये / पुनः हृदय के पास अञ्जलि लाते हुए स्वरित-मध्यम स्वर से 'त्ता' अक्षर कहना चाहिये। फिर अपने मस्तक को छते हए उदात्त स्वर से 'भे' अक्षर कहना चाहिये / यह प्रथम आवर्त है / इसी पद्धति से 'ज "व"णि' और 'जच""भे' ये शेष दो पावर्त भो करने चाहिये / प्रथम 'खमासमणे' छह और इसी प्रकार दूसरे 'खमासमणो' के छह, कुल बारह आवर्त होते हैं। इस प्रकार शिष्य, अवग्रह के बाहर प्रथम इच्छा-निवेदन-स्थान में यथाजात मुद्रा से दोनों हाथों में रजोहरण लिए हुए आधा शरीर झुकाकर नमन करता है और 'इच्छामि खमासमणो से लेकर 'निसीहियाए' तक का पाठ पढ़कर वन्दनकर्ता शिष्य वन्दन करने की इच्छा निवेदन करता है / शिष्य के इस प्रकार निवेदन करने के पश्चात् अवग्रह से बाहर रहकर ही 'तिक्खुत्तो' के पाठ से वन्दन कर लेना चाहिये / अथवा गुरु 'छन्देणं' ऐसा शब्द कहते हैं, जिसका अर्थ है--इच्छानुसार वन्दन करने की सम्मति देना। गुरुदेव की तरफ से उपयुक्त पद्धति के द्वारा वन्दन करने की आज्ञा मिल जाने पर शिष्य आगे बढ़कर, अवग्रहक्षेत्र के बाहर, किन्तु पास ही 'अवग्रह-प्रवेशाज्ञा-याचना' नामक दूसरे स्थान में पुनः पर्दावनत होकर नमन करता है और गुरुदेव से 'अणुजाणह मे मिउग्गहं' इस पाठ के द्वारा अवग्रह में प्रवेश करने की आज्ञा मांगता है। ग्राज्ञा मांगने पर गुरुदेव अपनी ओर से 'अणुजाणामि' कहकर प्रज्ञा प्रदान करते हैं। प्राज्ञा मिलने के बाद 'यथाजात मुद्रा' अर्थात् दीक्षा अंगीकार करते समय शिष्य की जैसी मुद्रा होती है, वैसी, दोनों हाथ अंजलिबद्ध कपाल (मस्तक) पर रखने की मुद्रा से 'निसीहि-निसीहि पद कहते हुए अवग्रह में प्रवेश करना चाहिये। बाद में रजोहरण से भूमि प्रमार्जन कर, गुरुदेव के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org