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________________ तृतीय अध्ययन : वन्दन] . [23 - विवेचन-दूसरे अध्ययन में प्राणातिपात आदि सावध योग की निवृतिरूप सामायिक व्रत के उपदेशक तीर्थंकरों की स्तुति की गई है। तीर्थंकरों से उपदिष्ट वह सामायिक व्रत गुरु महाराज की कृपा से ही प्राप्त हो सकता है / इस कारण, तथा गुरुवन्दनपूर्वक ही प्रतिक्रमण करने का शिष्टाचार होने से गुरुवन्दना करना आवश्यक है / अतएव 'गुरुवन्दन' नामक तृतीय अध्ययन प्रारम्भ करते हैं 'इच्छामि'-जैनधर्म इच्छाप्रधान धर्म है / साधक प्रत्येक साधना अपनी स्वयं की इच्छा से करता है, उस पर किसी का दबाव नहीं रहता है। चित्त की प्रसन्नता के अभाव में अरुचिपूर्वक या दवाव से की जाने वाली साधना, वस्तुतः साधना न होकर एक तरह से दण्ड रूप हो जाती है। दबाव से या भय के भार से लदी हुई निष्प्राण धर्मक्रियाएं साधक के जीवन को उन्नत बनाने के बदले कुचल देती हैं। यही कारण है कि जैनधर्म की साधना में सर्वत्र ‘इच्छामि खमासमणो', 'इच्छामि पडिक्कमामि' आदि रूप में सर्वप्रथम 'इच्छामि' का प्रयोग होता है / इच्छामि का अर्थ हैमैं चाहता हूँ अर्थात् मैं अन्तःकरण की प्रेरणा से यह क्रिया करने का अभिलाषी हूँ। __ 'खमासमणो'-श्रमणः, शमनः, समनाः, समणः इन चारों शब्दों का प्राकृत में 'समणो' रूप बनता है / इन चारों के शव्दार्थ में किचित् भिन्नता होने पर भी भावार्थ में भेद नहीं है / 1. 'श्रमण'-बारह प्रकार की तपस्या में श्रम अर्थात् परिश्रम करने वाले, अथवा इन्द्रिय एवं मन का दमन करने वाले को 'श्रमण' कहते हैं। 2. 'शमन'-क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय एवं नोकषाय रूपी अग्नि को शान्त करने वाले को 'शमन' कहते हैं। 3. 'समन'---शत्रु तथा मित्र पर समभाव रखने वाले को 'समन' कहते हैं / 4. 'समण'--अच्छी तरह से जिनवाणी का उपदेश देने वाले, अथवा संयम के बल से कषाय को जीतकर रहने वाले को 'समण' कहते हैं / 'श्रमु' धातु तप और खेद अर्थ में व्यवहृत होती है / अत: जो तपश्चरण करता है एवं संसार से सर्वथा निर्लिप्त रहता है, वह श्रमण कहलाता है / क्षमाप्रधान श्रमण क्षमाश्रमण होता है / अनुयोगद्वार सूत्र में आवश्यक के छह प्रकार बताए गए हैं---- 'सामाइयं चउवीसत्थरो, वंदयणं, पडिक्कमणं, काउस्सग्गो पच्चक्खाणं / इनमें वन्दना तीसरा आवश्यक है। इसमें शिष्य गुरुदेव को वन्दन कर सम्बोधन करके कहता है-हे क्षमाश्रमण गुरुदेव ! मैं अपनी शक्ति के अनुसार प्राणातिपात आदि सावध व्यापारों से रहित काय से वन्दना करना चाहता हूँ, अतः आप मुझे मितावग्रह (जहाँ गुरु महाराज विराजित हों, उनके चारों ओर की साढ़े तीन हाथ भूमि) में प्रवेश करने की आज्ञा दीजिये। __ गुरु शिष्य को 'अनुजानामि' अर्थात आज्ञा देता , कहकर प्रवेश की आज्ञा देते हैं। प्राज्ञा पाकर शिष्य कहता है हे गुरु महाराज ! मैं सावध व्यापारों को रोककर मस्तक और हाथ से आपके चरणों का स्पर्श करता हूँ। इस तरह वन्दना करने से मेरे द्वारा आपको किसी प्रकार का कष्ट पहुंचा हो तो आप उसे क्षमा करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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