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________________ 16] [आवश्यकसूत्र ___ कायोत्सर्ग में कायव्यापारों का परित्याग करता हूँ, निश्चल होता हूँ। परन्तु जो शारीरिक क्रियाएँ अशक्यपरिहार होने के कारण स्वभावतः हरकत में आ जाती हैं उनको छोड़कर। (वे क्रियाएं इस प्रकार हैं -) __ ऊँचा श्वास, नीचा श्वास, खाँसी, छीक, उबासी, डकार, अपान वायु का निकलना, चक्कर आना, पित्तविकार-जन्य मूर्छा, सूक्ष्म रूप से अंगों का हिलना, सूक्ष्म रूप से कफ का निकलना, सूदम रूप से नेत्रों की हरकत से अर्थात संचार से, इत्यादि आगारों से मेरा कायोत्सर्ग भग्न न हो एवं विराधना रहित हो। जब तक अरिहंत भगवानों को नमस्कार न कर लें, तब तक एक स्थान पर स्थिर रह, मौन रहकर, धर्मध्यान में चित्त को स्थिर करके अपने शरीर को पापव्यापारों से अलग करता हूँ। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में अतिचारों की विशेष शुद्धि के लिये विधिपूर्वक कायोत्सर्ग का स्वरूप बताया गया है। ___ यहाँ पर 'तस्स' पद से अतिचारयुक्त आत्मा को ग्रहण किया गया है / कोई-कोई 'तस्स' इस पद से अतिचार का ग्रहण करते हैं, लेकिन वह उचित नहीं है। वास्तव में उसका सम्बन्ध तस्स मिच्छा मि दुक्कड' इस पद के साथ है। "उत्तरीकरणेणं' और 'विसल्लीकरणेणं' के साथ उसका सम्बन्ध नहीं बैठता। कारण यह है कि न तो अतिचारों को उत्कृष्ट बनाने के लिये कायोत्सर्ग किया जाता है और न उसमें माया आदि शल्य होते हैं। मायादि शल्य तो आत्मा के विभाव परिणाम अतः स्पष्ट है कि 'तस्स' का अर्थ आत्मा ही हो सकता है। आत्मविकास की प्राप्ति के लिये शरीर सम्बन्धी समस्त चंचल व्यापारों का त्याग करना ही इस सूत्र का प्रयोजन है।। यह उत्तरी-करण सूत्र है। इसके द्वारा ऐर्यापथिक प्रतिक्रमण से शुद्ध प्रात्मा में बाकी रही हई सुक्ष्म मलीनता को भी दूर करने के लिये विशेष परिष्कार स्वरूप कायोत्सर्ग का संकल्प किया जाता है। प्रस्तुत उत्तरीकरण पाठ के सम्बन्ध में संक्षिप्त में हम कह सकते हैं कि व्रत एवं आत्मा की शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त अावश्यक है। प्रायश्चित्त विना भाव की शुद्धि के नहीं हो सकता। भावशुद्धि के लिए शल्य (माया, निदान, मिथ्यादर्शन) का त्याग जरूरी है। शल्य का त्याग और पापकर्मों का नाश कायोत्सर्ग से ही हो सकता है, अतः कायोत्सर्ग करना परमावश्यक है। विशिष्ट शब्दों का अर्थ सस्स' -अतिचारों से दूषित आत्मा की। 'उत्तरीकरणणं'–उत्कृष्टता या निर्मलता के लिए, 'विसल्लीकरणेणं'–शल्यरहित करने के लिये / 'ठामि' करता हूँ। उड्डुएणं डकार आने से / 'भमलीए'-चक्कर आ जाने से / 'खेलसंचाले हि'--खेल-श्लेष्म-कफ के संचार से / ज्ञान के अतिचार का पाठ प्रागमे तिविहे पण्णते, तं जहा-सुत्तागमे, अत्थागमे तदुभयागमे / ' जं वाइद्ध, वच्चामेलियं, होणक्खरं, अच्चक्खरं पयहीणं, विणयहीणं, जोगहीणं, घोसहोणं, 1. इस तरह तीन प्रकार के पागम रूप ज्ञान के विषय में कोई अतिचार लगा हो तो पालोऊ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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