________________ प्रथम अध्ययन : सामायिक] [15 . 'गमणागमणे' से लेकर 'जीवियाग्रो ववरोविया' तक का पाठांश आलोचनासूत्र है। आलोचना का अर्थ है गुरु महाराज के समक्ष अपने अपराध को एक के बाद एक क्रमशः प्रकट करना। अपनी भूल स्वीकार करना बहुत बड़ी बात है, और फिर उसे गुरु के समक्ष निष्कपट भाव से यथावत् रूप में निवेदन करना तो और भी बड़ी बात है। प्रात्मशोधन की प्रान्तरिक कामना रखने वाले साहसी वीर पुरुष ही ऐसा कर सकते हैं / विशिष्ट शब्दों का स्पष्टीकरण 'अभिया'—इसका संस्कृत रूप 'अभिहताः' बनता है, जिसका अर्थ है सम्मुख पाते हुए को रोका हो / अर्थात् सामने आते प्राणियों को रोककर उनकी स्वतन्त्र गति में बाधा डाली हो। 'वत्तिया'-(वर्तिताः) अर्थात् धूल आदि से ढंके हों। 'लेसिया' का अर्थ है जीवों को भूमि पर मसलना और संघट्टिया का अर्थ है जीवों का स्पर्श करके पीडित करना। __'उत्तिग' का अर्थ चींटियों का नाल अथवा चींटियों का बिल किया गया है / प्राचार्य हरिभद्र ने इनका अर्थ 'गर्दभ' की आकृति का जीव विशेष भी किया है,—उत्तिंगा गर्दभाकृतयो जीवाः, कीटिकानगराणि वा / ' आचार्य जिनदास महत्तर के उल्लेख से मालूम होता है कि यह भूमि में गड्ढा करने वाला जीव है / 'उत्तिगा नाम गद्दभाकिती जीवा भूमीए खड्डयं करेंति ।-आवश्यकचूर्णि / 'दन'-सचित्त जल / 'मट्री-सचित्त पृथ्वी / 'ठाणाम्रो ठाणं संकामिया'- एक स्थान ओ ठाणं संकामिया'- एक स्थान से दूसरे स्थान पर धकेला हो / 'ववरोविया'--घात किया हो। प्रागार-सूत्र तस्स उत्तरीकरणेणं पायच्छित्त-करणेणं विसोहीकरणेणं विसल्लीकरणेणं पावाणं कम्माणं निग्घायणटाए ठामि काउस्सग्गं, अन्नत्थ ऊससिएणं, नीससिएणं, खासिएणं, छोएणं, जंभाइएणं, उड्डुएणं, वायनिसम्गेणं, भमलीए, पित्तमुच्छाए, सुहुमेयिं अंग-संचालेहि, सुहमेहि खेल-संचालेहि, सुहुमेहि दिद्वि-संचालेहि एवमाइएहिं प्रागारेहि, अभग्गो अविराहियो, हुज्ज मे काउस्सग्गो, जाव अरिहंताणं भगवंताणं, नमुक्कारेणं न पारेमि, ताव कायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं, अप्पाणं वोसिरामि। भावार्थ--आत्मा की विशेष उत्कृष्टता, निर्मलता या श्रेष्ठता के लिये, प्रायश्चित्त के लिए, शल्य रहित होने के लिए, पाप कर्मों का पूर्णतया विनाश करने के लिये मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org