________________ 14] [आवश्यकसूत्र विवेचन–मनुष्य भ्रमणशील है / वह सदा-सर्वदा घूमता रहता है। कभी शरीर से घूमता है, कभी वाणी से दुनियां को सैर करता है, तो कभी मन से आकाश-पाताल को नापता है / उसका एक योग निरंतर गतिशील रहता है / उसकी यात्रा जिन्दगी की पहली सांस से प्रारम्भ होती है और अन्तिम सांस तक चलती रहती है / साधु तो विशेष रूप से घुमक्कड़ हैं / तात्पर्य यह है कि जीवन में गमनागमन करना अनिवार्य क्रिया है और उससे अन्य प्राणियों को पीड़ा होना भी स्वाभाविक है / प्रस्तुत ऐपिथिक सूत्र में गमनागमन आदि प्रवत्तियों में किस प्रकार और किन-किन जीवों को पीड़ा पहुँच जाती है ? इसका अत्यन्त सूक्ष्मता एवं विशदता से वर्णन किया गया है। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सभी सूक्ष्म एवं स्थूल जीवों को हुई पीड़ा के लिये हृदय से पश्चात्ताप करके शुद्धविशुद्ध बनाने का प्रभावशाली विधान इस पाठ में किया गया है। जैनधर्म विवेकप्रधान धर्म है। विश्व में जितने भी धर्म के व्याख्याकार हुए हैं, उन्होंने प्रत्येक साधना को, चाहे वह लघु हो, चाहे महान्, चाहे सामान्य हो, चाहे विशिष्ट, विवेक की कसौटी पर कसकर देखा है। जिस साधना में विवेक है, वह सम्यक् साधना है, शुभ योग वाली साधना है और जिसमें अविवेक है, वह असम्यक् और अशुभ योग वाली साधना है / आचाराङ्गसूत्र में स्पष्ट कहा है-'विवेगे धम्ममाहिए' अर्थात् विवेक में ही धर्म है, विवेक सत्यासत्य का परीक्षण करने वाला दिव्य नेत्र है / हेय क्या है, ज्ञेय क्या है, उपादेय क्या है, कर्तव्य क्या है, अकर्तव्य क्या है ? विवेकी पुरुष इन सब बातों का विवेक से ही निर्णय करता है / यतना अर्थात् विवेकपूर्वक चलने फिरने, खड़े होने, बैठने, सोने, प्रादि से पाप कर्म का बन्ध नहीं होता, क्योंकि पाप-कर्म के बन्धन का मूल कारण अयतना है / दशवकालिक सूत्र में कहा है जयं चरे जयं चिट्ठ, जयमासे जयं सये। जयं भुंजंतो भासतो, पाव-कम्मं न बंधई / / -दश. 4 / 8 प्रस्तुत पाठ हृदय की कोमलता का ज्वलन्त उदाहरण है। विवेक और यतना के संकल्पों का जीता जागता चित्र है / आवश्यक प्रवृत्ति के लिए इधर-उधर आना-जाना हुअा हो और उपयोग रखते हुए भी यदि कहीं असावधानीवश किसी जीव को पीड़ा पहुँची हो तो उसके लिये प्रस्तुत सूत्र में पश्चात्ताप प्रकट किया गया है। 'इच्छामि पडिक्कमिउं इरियावहियाए विराहणाए' यह प्रारम्भ का सूत्र आज्ञासूत्र है। इसके द्वारा गुरुदेव से ऐर्यापथिक प्रतिक्रमण की प्राज्ञा ली जाती है। ____ इच्छामि' शब्द से ध्वनित होता है कि साधक पर बाहर का कोई दबाव नहीं है / वह स्वेच्छापूर्वक अन्तर की प्रेरणा से ही आत्मशुद्धि के लिए प्रतिक्रमण करना चाहता है। इसके लिए गुरुदेव से प्राज्ञा मांग रहा है / प्रायश्चित्त और दण्ड में यही अन्तर है / प्रायश्चित्त में अपराधी स्वयं अपने अपराध को स्वीकार करके पुनः प्रात्मशुद्धि के लिये प्रायश्चित करने को तत्पर रहता है / दण्ड में स्वेच्छा के लिए कोई स्थान नहीं है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org