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________________ 113 प्रथम अध्ययन : सामायिक] 'जं खंडियं जं विराहियं' जो खंडित हुआ हो और विराधित हुअा हो। किसी व्रत का अल्पांशेन उल्लंघन खण्डन कहलाता है और सर्वांशेन अतिक्रमण को विराधना कहते हैं। कहीं-कहीं सर्वांश नहीं किन्तु अधिकांश के उल्लंघन को गिराधना कहा गया है। ___'मिच्छा मि दुक्कड'--मेरा दुष्कृत मिथ्या निष्फल हो। 'मिच्छा मि' इस पद का 'मि' 'च्छा' 'मि' ऐसा पदच्छेद करके इस प्रकार अर्थ करते हैं-यथा 'मि'- कायिक और मानसिक अभिमान को छोडकर, 'छा'--असंयमरूप दोष को ढंक कर, 'मि'-- चारित्र की मर्यादा में रहा हा मैं। 'दु'–सावद्यकारी प्रात्मा की निन्दा करता हूँ, 'क'–किये हुए सावध कर्म को, 'ड'---उपशम द्वारा त्यागता हूँ। अर्थात् द्रव्य एवं भाव से नम्र तथा चारित्रमर्यादा में स्थित होकर मैं सावध क्रियाकारी आत्मा की निन्दा करता हूँ और किये हुए दुष्कृत (पाप) को उपशम भाव से हटाता हूँ। किन्तु यह एक क्लिष्ट कल्पना है / ऐर्यापथिक-सत्र इच्छामि पडिक्कमिउं इरियावहियाए विराहणाए गमणागमणे पाणवकमणे बीय-क्कमणे, हरिय-क्कमणे, ओसा-उत्तिगपणग-दग-मट्टी-मक्कडा-संताणा-संकमणे, * जे मे जीवा विराहिया-- एगिदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चरिंदिया, पंचिदिया, अभिहया, वत्तिया, लेसिया, संघाइया, संघट्टिया, परियाविया, किलामिया, उद्दविया, ठाणानो ठाणं संकामिया, जीवियाग्रो ववरोविया, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं / भावार्थ-मैं प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ / मार्ग में चलते हुए अथवा संयमधर्म पालन करते हुए लापरवाही अथवा असावधानी के कारण किसी भी जीव की किसी प्रकार की विराधना अर्थात् हिंसा हुई हो तो मैं उस पाप से निवृत्त होना चाहता हूँ। स्वाध्याय आदि के लिये उपाश्रय से बाहर जाने में और फिर लौटकर उपाश्रय पाने में अथवा मार्ग में कहीं गमनागमन करते हुए प्राणियों को पैरों के नीचे या किसी अन्य प्रकार से कुचला हो, सचित्त जौ, गेहूं या किसी भी तरह के बीजों को कुचला हो, घास अंकुर आदि हरित वनस्पति को मसला हो, दबाया हो, आकाश से रात्रि में गिरने वाली प्रोस, उत्तिग अर्थात् कीड़ी आदि के बिल, पांचों ही रंग की सेवाल--काई, सचित्त जल, सचित्त पृथ्वी और मकड़ी के सचित्त जालों को दबाया हो, मसला हो तो मेरा वह सब अतिचारजन्य पाप मिथ्या हो-निष्फल हो तथा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय तक किसी भी जीव की विराधना-हिंसा की हो, सामने आते हुए को रोका हो, धूल आदि से ढंका हो, जमीन पर या आपस में मसला हो, एकत्रित करके ऊपर नीचे ढेर किया हो, असावधानी से क्लेशजनक रीति से छुपा हो, परितापित अर्थात् दुःखित किया हो, थकाया हो, त्रस्त हैरान किया हो, एक जगह से दूसरी जगह बदला हो, जीवन से रहित किया हो, तो मेरा वह सब पाप मिथ्या हो—निष्फल हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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