________________ 12] [आवश्यकसून 'उम्मग्गो'-उन्मार्ग रूप अर्थात् क्षायोपशमिक भाव का उल्लङ्घन करके औदयिक भाव में संक्रमण करना उन्मार्ग है / चारित्रावरण कर्म का जब क्षयोपशम होता है, तब चारित्र का आविर्भाव होता है और जब चारित्रावरण कर्म का उदय होता है तब चारित्र का घात होता है / अत: साधक को प्रतिपल उदय भाव से क्षायोपशमिक भाव में संचरण करते रहना चाहिये / मार्ग का अर्थ परम्परा भी है। 'प्रकप्पो'-चरण एवं करण रूप धर्मव्यापार कल्प अर्थात् प्राचार कहलाता है / चरण-करण के विरुद्ध आचरण करना अकल्प है / 'सुए'-सुए अर्थात् श्रुत का अर्थ है श्रुतज्ञान / वीतराग तीर्थकर भगवान् के श्रीमुख से सुना हुना होने से आगम-साहित्य को श्रु त कहा जाता है / लिपिबद्ध होने से पूर्व प्रागम श्रुतिपरम्परा से ही ग्रहण किए जाते थे, अर्थात् गुरु अपने शिष्य को और शिष्य अपने शिष्य को मौखिक रूप में आगम प्रदान करता था। इस कारण भी पागम 'श्रुत' कहलाता है। श्रुत-सम्बन्धी अतिचार का प्राशय हैश्रत की विपरीत श्रद्धा एवं प्ररूपणा / 'सत्तण्हं पिंडेसणाणं'-दोष रहित शुद्ध प्रासुक आहार-पानी ग्रहण करना एषणा है / पिण्डैषणा के सात प्रकार हैं 1. असंसृष्टा-देय भोजन से बिना सने हुए हाथ तथा पात्र से पाहार लेना / 2. संसृष्टा-देय भोजन से सने हुए हाथ तथा पात्र से आहार लेना। 3. उद्धता-बर्तन से थाली आदि में गृहस्थ ने अपने लिए जो भोजन निकाल रखा हो, बह लेना। 4. अल्पलेपा-जिनमें चिकनाहट न हो, अतएव लेप न लग सके, इस प्रकार के भुने हुए चने आदि ग्रहण करना। 5. अवगृहीता--भोजनकाल के समय भोजनकर्ता ने भोजनार्थ थाली प्रादि में जो भोजन परोस रक्खा हो, किन्तु अभी भोजन शुरु न किया हो, वह आहार लेना। 6. प्रगृहीता-थाली में भोजनकर्ता द्वारा हाथ आदि से प्रथम बार तो प्रगृहीत हो चुका हो, पर दूसरी बार ग्रास लेने के कारण झूठा न हुआ हो, वह आहार लेना / 7. उज्झितधर्मा--जो आहार अधिक होने अथवा अन्य किसी कारण से फेंकने योग्य समझकर डाला जा रहा हो, वह ग्रहण करना / 'अट्टण्हं पवयणमाऊणं'–पांच समिति और तीन गुप्ति मिलकर आठ प्रवचन-माताएँ हैं। सम्पूर्ण श्रमणाचार की अाधारभूमि पांच समिति और तीन गुप्ति ही हैं / समीचीन यतनापूर्वक प्रवृत्ति . समिति और योगों का सम्यक् निग्रह गुप्ति कहलाता है। पांच समिति--१. ईर्यासमिति, 2. भाषासमिति, 3. एषणासमिति, 4. आयाणभंडमत्तनिवखेवणासमिति, 5. उच्चारपासवणखेल्ल-जल्ल-संघाण-परिट्ठावणियासमिति / तीन गुप्ति-१. मनोगुप्ति, 2. वचनगुप्ति एवं 3. कायगुप्ति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org