________________ प्रथम अध्ययन : सामायिक [11 उस्सुत्तो, उम्मग्गो, अकप्पो, अकरणिज्जो, दुझानो, दुविचितिनो अणायारो, अणिच्छिययो, असमणपाउग्गो, नाणे तह दंसणे चरित्ते सुए सामाइए, तिण्हं गुत्तीणं, चउण्हं कसायाणं, पंचण्हं महव्वयाणं, छण्हं जीवनिकायाणं, सत्तण्हं पिडेसणाणं, अट्ठण्हं पवयणमाऊणं, नवण्हं बंभचेरगुत्तीणं, दसविहे समणधम्मे, समणाणं जोगाणं जं खंडियं जं विराहियं तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। भावार्थ-हे भदन्त ! मैं चित्त की स्थिरता के साथ, एक स्थान पर स्थिर रहकर, ध्यानमौन के सिवाय अन्य सभी व्यापारों का परित्याग रूप कायोत्सर्ग करता हूँ। [ परन्तु इसके पहले शिष्य अपने दोषों की आलोचना करता है—] ज्ञान में, दर्शन में, चारित्र में तथा विशेष रूप से श्रुतधर्म में, सम्यक्त्व रूप तथा चारित्र रूप सामायिक में 'जो मे देवसिनो' अर्थात मेरे द्वारा प्रमादवश दिवस सम्बन्धी (तथा रात्रि सम्बन्धी) संयम मर्यादा का उल्लङघन रूप जो अतिचार किया गया हो, चाहे वह कायिक, वाचिक अथवा मानसिक अतिचार हो, उस अतिचार का पाप मेरे लिए निष्फल हो। वह अतिचार सूत्र के विरुद्ध है, मार्ग अर्थात् परम्परा से विरुद्ध है, अकल्प्य- आचार से विरुद्ध है, नहीं करने योग्य है, दुनि-पार्तध्यान रूप है, दुर्विचिन्तित-रौद्रध्यान रूप है, नहीं प्राचरने योग्य है, नहीं चाहने योग्य है, संक्षेप में साधुवृत्ति के सर्वथा विपरीत है--साधु को नहीं करने योग्य है। योग-निरोधात्मक तीन गुप्ति, चार कषायों की निवृत्ति, पांच महाव्रत, छह पृथिवीकाय, जलकाय आदि जीवनिकायों की रक्षा, सात पिण्डैषणा---(१. असंसृष्टा, 2. संसृष्टा, 3. उद्धृता, 4. अल्पलेपा, 5. अवगृहीता, 6. प्रगृहीता, तथा 7. उज्झितर्धामका), आठ प्रवचन माता (पांच समिति, तीन गुप्ति), नौ ब्रह्मचर्यगुप्ति, दशविध श्रमणधर्म (श्रमण-सम्बन्धी कर्तव्य) यदि खण्डित हुए हों, अथवा विराधित हुए हों, तो वह सब पाप मेरे लिए निष्फल हो। विवेचन–मानव, देव एवं दानव के बीच की कड़ी है। वह अपनी सवतियों के द्वारा देवत्व को प्राप्त कर सकता है और असद्वतियों के द्वारा दानव जैसी निम्न कोटि में भी पहुंच सकता है। मनुष्य के पास तीन महान् शक्तियाँ हैं-मन, वचन एवं काय / इन शक्तियों के बल पर वह प्रशस्तअप्रशस्त चाहे जैसा जीवन बना सकता है। सन्तों-मुनिजनों को तो कदम-कदम पर मन, वचन और शरीर की शुभाशुभ चेष्टाओं का ध्यान रखना ही चाहिये / इस विषय में जरा भी असावधानी भयंकर पतन का कारण बन सकती है। प्रस्तुत प्रतिक्रमण-सूत्र के पाठ द्वारा इन्हीं तीन शक्तियोंयोगों से रात-दिन में होने वाली भूलों का परिमार्जन किया जाता है और भविष्य में सावधान रहने की सुदृढ़ धारणा बनाई जाती है। यह प्रतिक्रमण का प्रारम्भिक सूत्र है। इसमें प्राचार-विचार सम्बन्धी भूलों का संपेक्ष में प्रतिक्रमण किया गया है। कुछ पारिभाषिक शब्दों का विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है 'उस्सुत्तो'--उस्सुत्तो का संस्कृत रूप 'उत्सूत्र' होता है। उत्सूत्र का अर्थ है--सूत्र अर्थात् आगम से विरुद्ध आचरण / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org