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________________ [आवश्यकसूत्र सर्वश्रेष्ठ त्याग तीनों करणों और तीनों योगों से होता है / मुनि की सामायिक तीन करण तीन योग से होती है, अतः सर्वोत्कृष्ट त्याग मुनि का माना गया है। गृहस्थ की सामायिक दो करण तीन योग से होती है / सामायिक पाठ का उच्चारण करते समय यदि कोई गृहस्थ श्रावक स्वयं सामायिक व्रत ग्रहण कर रहा है अथवा साधु उसे व्रत ग्रहण करवा रहा है तो 'दुविहं तिविहेणं' पाठ बोला जाएगा और 'जावज्जोवाए' के स्थान पर 'जावनियम' कहा जाएगा। जैनधर्म में पतन के दो कारण माने गये हैं--योग और कषाय / योग का अर्थ है-मन, वचन और काया की हलचल / कषाय अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ / ये चारों आत्मा की वैषम्यपूर्ण अवस्थाएँ हैं / क्रोध उस अवस्था का नाम है जब हम दूसरे को घृणा या द्वेष की दृष्टि से देखते हैं और हानि पहुँचाना चाहते हैं। मान की अवस्था में द्वेष भावना न्यन होने भी उस रूप में भेदबुद्धि रहती है, हम स्वयं को ऊंचा मानते हैं और दूसरे को नीचा, स्वयं को बड़ा और दूसरे को छोटा, अपने को धर्मात्मा एवं दूसरे को पापी, अधम मानते हैं / माया का अर्थ है स्वार्थ को प्रच्छन्न-रूप से या कपट के द्वारा पूर्ण करने की भावना / लोभ अर्थात् अधिक लाभ की इच्छा / लोभावस्था में स्वयं के स्वार्थ को जितना महत्त्व दिया जाता है, उतना दूसरे के स्वार्थ को नहीं / सामायिक इन्हीं अशुभ योगों और कषायों से ऊपर उठने की साधना है। सामायिक पूर्ण करते समय गृहस्थ संभावित भूलों का चिन्तन करता है, जिन्हें जैन परिभाषा में 'अतिचार' कहते हैं। वे अतिचार पांच प्रकार के हैं--१. मनोदुष्प्रणिधान, 2. वचोदुष्प्रणिधान, 3. कायदुष्प्रणिधान, 4. स्मृत्यन्तर्धान, 5. अनवस्थितता। प्रणिधान का अर्थ है-.. विनियोग, जिसे अंग्रेजी में Investment कहा जाता है / दुष्प्रणिधान का अर्थ है-गलत विनियोग (Wrong Investment) / मन, वचन और काया प्रत्येक साधक की बहुमूल्य सम्पत्ति है / स्मृत्यन्तर्धान का अर्थ है-इस बात को भूल जाना कि मैं सामायिक में हूँ और व्यर्थ की बातों में लगना / साधक को सदा जागरूक रहना चाहिये / अनवस्थितता का अर्थ है—चंचलता अथवा अन्यमनस्कता। जितने समय के लिये बत लिया है, उसे स्थिरता के साथ पूरा करना चाहिये / मंगलसत्र चत्तारि मंगलं अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलि-पण्णत्तो धम्मो मंगलं / भावार्थ-संसार में चार मंगल हैं(१) अरिहन्त भगवान् मंगल हैं / (2) सिद्ध भगवान् मंगल हैं। (3) साधु-महाराज मंगल हैं। (4) सर्वज्ञप्ररूपित धर्म मंगल है। विवेचन--मंगल दो प्रकार के हैं--लौकिक मंगल और लोकोत्तर मंगल / दधि, अक्षत, पुष्पमाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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