________________ प्रथम अध्ययन : सामायिक प्रतिज्ञासूत्र करेमि भंते ! सामाइयं सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि जावज्जीवाए, तिविहं तिविहेणंमणेणं, वायाए, कारणं न करेमि, न कारवेमि, करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि। तस्स भंते ! पडिक्कमामि, निदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि / भावार्थ-भगवन् ! मैं सामायिक व्रत ग्रहण करता हूँ। अत: सावद्य-पाप कर्म वाले व्यापारों का त्याग करता हूँ। जीवन पर्यन्त मन, वचन और शरीर-इन तीनों योगों से पाप कर्म न मैं स्वयं करूगा, न दूसरों से कराऊंगा और न करने वालों का अनुमोदन ही करूंगा। भन्ते ! पूर्वकृत पापों से निवृत्त होता हूँ, अपने मन से पापों को बुरा मानता हूँ, आपकी साक्षी से उनकी गर्दा निन्दा करता हूँ, अतीत में कृत पापों का पूर्ण रूप से परित्याग करता हूँ। विवेचन---जब मोक्षाभिलाषी साधक, गृहस्थ जीवन से सर्वविरति-साधुता की ओर अग्रसर होता है, तब यह सामायिकसूत्र वोला जाता है। विश्व-हितंकर संत के पद पर पहुँचने के लिये इस सामायिक सूत्र का आलम्बन लेना जैन परम्परा के अनुसार अनिवार्य है। सामायिक का उद्देश्य समभाव की साधना है / प्राणिमात्र पर समभाव रखना महान् उच्च आदर्श है / शास्त्रकार कहते हैं "जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु य / / तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं / " - अनुयोगद्वार केवली भगवान् ने कहा है जो (साधक) समस्त त्रस और स्थावर जीवों के प्रति समभाव धारण करता है, उसी को सामायिक की प्राप्ति होती है। जैनधर्म समताप्रधान धर्म है, समता की साधना को ही सामायिक कहते हैं। सामायिक शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है--'समस्य प्रायः समायः, सः प्रयोजनं यस्य तत् सामायिकम्' अर्थात् वह अनुष्ठान जिसका प्रयोजन जीवन में समता लाना है। गहस्थ श्रावक सामायिक स्वीकार करते समय दो करण और तीन योग से साधारणतया एक मुहूर्त अर्थात् 48 मिनिट के लिये सावधयोग का त्याग करता है / जैनधर्म में जो भी प्रत्याख्यान अथवा नियम किया जाता है उसमें करण और ग का होना आवश्यक है। करण का अर्थ है-प्रवृत्ति। उसके तीन रूप हैं-(१) स्वयं करना, (2) दूसरे से कराना, और (3) अनुमोदन करना। योग का अर्थ है मन, वचन और शरीर / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org