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________________ हुए आचार्य ने चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग और द्रव्यानुयोग के पृथक्करण की चर्चा की है तथा निह्नवों का भी वर्णन है। निहववाद पर विस्तार से चर्चा है। अन्त में "करेमि भन्ते" आदि सामायिक सूत्र के मूल पदों पर विचार किया गया है। जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण की प्रबल ताकिक शक्ति, अभिव्यक्तिकुशलता, प्रतिपादन की पटुता तथा विवेचन को विशिष्टता को निहार कर कौन मेधावी मुग्ध नहीं होगा ? भाष्यसाहित्य में विशेषावश्यकभाष्य का अनठा स्थान है। विशेषावश्यकभाष्य आचार्य जिनभद्र की अन्तिम रचना है। उन्होंने इस पर स्वोपज्ञवृत्ति भी लिखनी प्रारम्भ की थी, किन्तु पूर्ण होने से पहले ही उनका प्रायुष्य पूर्ण हो गया था, जिससे वह वृत्ति अपूर्ण ही रह गई। विज्ञों का अभिमत है कि जिनभद्र गणी का उत्तरकाल विक्रम संवत् 650 से 660 के आस-पास होना चाहिये। चणिसाहित्य नियुक्ति और भाष्य की रचना के पश्चात जैन मनीषियों के अन्तर्मानस में आगमों पर गद्यात्मक व्याख्या साहित्य लिखने की भावना उत्पन्न हुई। उन्होंने शुद्ध प्राकृत में और संस्कृत मिश्रित प्राकृत में व्याख्याओं की रचना की, जो आज चणिसाहित्य के रूप में विश्रुत है। चणिसाहित्य के निर्माताओं में जिनदासगणि महत्तर का मूर्धन्य स्थान है। उन्होंने सात चणियां लिखीं। उसमें आवश्यक चूणि एक महत्त्वपूर्ण रचना है। यह चूणि नियुक्ति के अनुसार लिखी गई है, भाष्य गाथाओं का उपयोग भी यत्र-तत्र हुआ है / मुख्य रूप से भाषा प्राकृत है किन्तु संस्कृत के श्लोक, गद्य व गद्य पंक्तियां भी उद्ध त की गई हैं। भाषा प्रवाहयुक्त है। शैली में लालित्य व ओज है। ऐतिहासिक कथाओं की प्रचुरता है। यह चणि अन्य चूर्णियों से विस्तृत है। ओपनियुक्ति चणि, गोविन्दनियुक्ति, वसुदेवहिण्डी प्रभति अनेक ग्रन्थों का उल्लेख इसमें हुआ है / सर्वप्रथम मंगल की चर्चा की गई है। भावमंगल में ज्ञान का निरूपण है। श्रुतज्ञान की दृष्टि से आवश्यक पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन किया है। द्रव्यावश्यक और भावावश्यक पर प्रकाश डाला है। श्रुत का प्ररूपण तीर्थंकर करते हैं / तीर्थकर कौन होते हैं...इस प्रश्न का समाधान करते हुए भगवान महावीर का जीव मिथ्यात्व से किस प्रकार मुक्त हुआ, यह प्रतिपादन करने के लिये महावीर के पूर्व भवों चर्चा की गई है। महावीर का जीव मरीचि के भव में ऋषभदेव का पौत्र था। अत: भगवान ऋषभदेव' के पूर्वभव और ऋषभदेव के जीवन पर प्रकाश डाला है / सम्राट भरत का भी सम्पूर्ण जीवन इसमें आया है। भगवान महावीर का जीव अनेक भवों के पश्चात् महावीर बना। महावीर के जीवन में जो भी उपसर्ग आये, उसका सविस्तृत निरूपण चूणि में हुआ है / नियुक्ति की तरह निह्नववाद का भी निरूपण है। उसके पश्चात द्रव्य, पर्याय, नयदष्टि से सामायिक के भेद, उसका स्वामी, उसकी प्राप्ति का क्षेत्र, काल, दिशा, सामायिक करने वाला, उसकी प्राप्ति के हेतु, आनन्द, कामदेव का दृष्टान्त, अनुकम्पा, इन्द्रनाग, पुण्य शाल, शिवराजर्षि मंगदत्त, दशार्णभद्र, इलापुत्र प्रादि के दृष्टान्त दिये हैं। सामायिक की स्थिति, सामायिक वालों की संख्या, सामायिक का अन्तर, सामायिक का आकर्ष, समभाव की महत्ता का प्रतिपादन करने के लिये दमदत्त एवं मेतार्य का दृष्टान्त दिया है / समास, संक्षेप और अनवद्य के लिये धर्मरुचि व प्रत्याख्यान के लिये तेतलीपुत्र का दृष्टान्त देकर विषय को स्पष्ट किया गया है। इसके पश्चात् सूत्रस्पशिक नियुक्ति की चणि है। उसमें नमस्कार महामन्त्र, निक्षेप दृष्टि से स्नेह, राग व द्वेष के लिये क्रमशः ग्रहनक, धर्मरुचि तथा जमदग्नि का उदाहरण दिया गया है। अरिहन्तों व सिद्धों को नमस्कार, औत्पत्तिकी आदि चारों प्रकार की बुद्धि, कर्म, समुदघात, योगनिरोध, सिद्धों का अपूर्व आनन्द, आचार्य उपाध्यायों और साधुओं को [58 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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