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________________ हैं। किसी महानगर में प्रवेश करने के लिये अनेक द्वार होते हैं, वैसे ही सामायिक अध्ययन के उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय-ये चार द्वार हैं। इन चारों द्वारों का विस्तार से निरूपण किया गया है। सामायिकश्रुत का सार सामायिक है / चारित्र ही मुक्ति का साक्षात् कारण है / ज्ञान से वस्तु का यथार्थ परिज्ञान होने से चारित्र की विशुद्धि होती है / केवलज्ञान होने पर भी जीव मुक्त नहीं होता / जब तक उसे सर्व संवर का लाभ न हो जाये / सामायिक का लाभ जीव को कब उपलब्ध होता है ? इस पर चिन्तन करते हुए लिखा है कि पाठों कर्म प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थितियों के रहते हुए जीव को सामायिक का लाभ नहीं हो सकता / नाम, गोत्र की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटा-कोटि सागरोपम है / मोहनीय की सत्तर कोटा-कोटि सागरोपम है। ज्ञानाबरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्त राय की तीस कोटा-कोटि सागरोपम है / प्रायुकर्म की तेतीस सागरोपम है। मोहनीयकर्म की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध होने पर ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, नाम, गोत्र और अन्तराय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बंधती है, किन्तु आयुकर्म की स्थिति के लिये निश्चित नियम नहीं है। वह उत्कृष्ट और मध्यम और जघन्य तीनों प्रकार की स्थिति बन्ध सकती है। मोहनीय के अतिरिक्त ज्ञानावरण प्रादि किसी भी कर्म की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध होने पर मोहनीय या अन्य कर्म की उत्कृष्ट या मध्यम स्थिति का बन्ध होता है किन्तु आयुकर्म की स्थिति जघन्य भी बंध सकती है। सम्यक्त्व, श्रुत, देशव्रत और सर्वव्रत-इन चार सामायिकों में से जिसने उत्कृष्ट कर्मस्थिति का बन्ध किया है, वह एक भी सामायिक को प्राप्त नहीं कर सकता। किन्तु उसे पूर्वप्रतिपन्न विकल्प से होती भी है और नहीं भी होती। जैसे अनुत्तरविमानवासी देव में पूर्वप्रतिपन्न सम्यक्त्व, श्रुत होते हैं, शेष में नहीं / जिनकी ज्ञानावरण आदि की जघन्य स्थिति है, उनको भी इन चार सामायिकों में से एक का भी लाभ नहीं होता, क्योंकि उसे पहले ही प्राप्त हो गई है / अतः पुनः प्राप्त करने का प्रश्न ही समुपस्थित नहीं होता। पायुकर्म की जघन्य स्थिति वाले को न यह पहले प्राप्त होती है और न वह प्राप्त ही कर सकता है। इसके पश्चात् सम्यक्त्व प्राप्ति के कारणों पर चिन्तन करते हए अन्थि-भेद का स्वरूप स्पष्ट किया है। आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की स्थिति, देशन्यून कोटा-कोटि सागरोपम की अवशेष रहती है तब मात्मा सम्यक्त्व के अभिमुख होता है / उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। उसमें से पल्योपम पृथकत्व का क्षय होने पर देशविरति-श्रावकत्व की प्राप्ति होती है। उसमें से भी संख्यात सागरोपम का क्षय होने पर सर्वविरति चारित्र की उपलब्धि होती है। उसमें से संख्यात सागरोपम का क्षय होने पर उपशमश्रेणी प्राप्त होती है / उसमें से भी संख्यात सागरोपम का क्षय होने पर क्षपकश्रेणी प्राप्त होती है। कषाय के उदय के कारण दर्शन आदि सामायिक प्राप्त नहीं हो सकती। यदि कदाचित् प्राप्त भी हो गई तो वह पुनः नष्ट हो जाती है। जिससे कर्मों का लाभ हो वह कषाय है। अनन्तानुबन्धी-चतुष्क, अप्रत्याख्यानीचतुष्क, प्रत्याख्यानी-चतुष्क इन बारह प्रकार के कषायों का क्षय, उपशम या क्षयोपशम होने से चारित्र की प्राप्ति होती है। सामायिक में साबध योग का त्याग होता है। वह इत्वर और पावत्कथिक के रूप में दो प्रकार की है। इत्वर सामायिक अल्पकालीन होती है और यावत्कथिक जीवनपर्यन्त के लिये। भाष्यकार ने सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात चारित्र का विस्तार से विवेचन किया है। ___ सामायिक चारित्र का उद्देश, निर्देश, निर्गम, क्षेत्र, काल, पुरुष, कारण, प्रत्यय, लक्षण, नय, समवतार, अनुमत, किम्, कतिविध, कस्य, कुत्र, केषु, कथम् , कियकिचर, कति, सान्तर, अविरहित, भव, आकर्ष, स्पर्शन और निरुक्ति, इन छब्बीस द्वारों से वर्णन किया है। सामायिक सम्बन्धी जितनी भी महत्त्वपूर्ण बातें हैं, वे सभी इन द्वारों में समाविष्ट हो गई हैं / तृतीय निर्गम द्वार में सामायिक की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विचार करते हुए प्राचार्य ने भगवान महावीर के ग्यारह गणधरों की चर्चा की है। सामायिक के ग्यारहवें द्वार समवतार पर विवेचन करते [ 57 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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