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________________ नियुक्तियों के पश्चात् भाष्य साहित्य लिखा गया / नियुक्तियों की व्याख्याशैली बहुत ही गूढ और संक्षिप्त थी। उनमें विषय विस्तार का अभाव था। उसका मुख्य लक्ष्य पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करना था / नियुक्तियों के गम्भीर रहस्यों को प्रकट करने के लिये विस्तार से प्राकृत भाषा में जो पद्यात्मक व्याख्याएं लिखी गईं, वे भाष्य के नाम से प्रसिद्ध हैं। नियुक्तियों के शब्दों में छिपे हुए अर्थबाहुल्य को अभिव्यक्त करने का श्रेय भाष्यकारों को है। भाष्य में अनेक स्थलों पर मागधी और शौरसेनी के प्रयोग हष्टिगोचर होते हैं। मुख्य छन्द आर्या है। भाष्य साहित्य में अनेक प्राचीन अनुश्रुतियों, लौकिक कथाओं और परम्परागत श्रमणों के प्राचार-विचार की विधियों का प्रतिपादन है। भाध्य भाष्यकार जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण का नाम जैन इतिहास में गौरव के साथ उकित है। आवश्यक सूत्र पर उन्होंने बिशेषावश्यकभाष्य की रचना की। आवश्यक सूत्र पर तीन भाष्य लिखे गए हैं-१. मूलभाष्य 2. भाष्य और 3. विशेषावश्यकभाष्य / पहले के दो भाष्य बहुत ही संक्षेप में लिखे गये हैं। उनकी बहुत सी गाथाएं विशेषावश्यकभाष्य में मिल गई हैं। इसलिये विशेषावश्यकभाष्य दोनों भाष्यों का भी प्रतिनिधित्व करता है। यह भाष्य केवल प्रथम अध्ययन सामायिक पर है। इसमें 3603 गाथाएं हैं। प्रस्तुत भाष्य में जैनागमसाहित्य में वर्णित जितने भी महत्त्वपूर्ण विषय हैं, प्रायः उन सभी पर चिन्तन किया है / ज्ञानवाद, प्रमाणवाद, प्राचार, नीति, स्याद्वाद, नयवाद, कर्मवाद पर विशद सामग्री का माकलनसंकलन है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जैन दार्शनिक सिद्धान्तों की तुलना अन्य दार्शनिक सिद्धान्तों के साथ की गई है। इसमें जैन आगमसाहित्य की मान्यताओं का ताकिक दृष्टि से विश्लेषण किया गया है। ग्रागम के गहन रहस्यों को समझने के लिए यह भाष्य बहुत ही उपयोगी है और इसी भाष्य का अनुसरण परवर्ती विज्ञों ने किया है। सर्वप्रथम प्रवचन को नमस्कार किया है, उसके पश्चात् लिखा है कि ज्ञान और क्रिया दोनों से मोक्ष प्राप्त होता है। आवश्यक स्वयं ज्ञान-क्रियामय है। उसी से सिद्धि सम्प्राप्त होती है। जैसे कुशल वैद्य बालक के लिये योग्य आहार की अनुमति देता है, वैसे ही भगवान् ने साधकों के लिये आवश्यक की अनुमति प्रदान की है। श्रेष्ठ कार्य में विविध प्रकार के विघ्न उपस्थित होते हैं। उनकी शान्ति के लिये मंगल का विधान है / ग्रन्थ में मंगल तीन स्थानों पर होता है। मंगल शब्द पर निक्षेप इष्टि से चिन्तन किया है। ज्ञान भावमंगल है। अतः ज्ञान के पांचों भेदों का बहत विस्तार के साथ निरूपण है। आवश्यक पर नाम आदि निक्षेपों से चिन्तन किया गया है। द्रव्य-प्रावश्यक, आगम और नो-पागम रूप दो प्रकार का है। अधिकाक्षर पाठ के लिये राजपुत्र कुणाल का उदाहरण दिया है। ही विद्याधर का उदाहरण दिया है। उभय के लिये बाल का उदाहरण दिया है और आतुर के लिये अतिमात्रा में भोजन और भेषज विपर्यय के उदाहरण दिये हैं। लोकोत्तर नोआगम रूप द्रव्यावश्यक के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिये साध्वाभास का दृष्टान्त देकर समझाया है। भाव-आवश्यक भी आगम रूप और नोआगम रूप दो प्रकार का है। आवश्यक के अर्थ का जो उपयोग रूप परिणाम है वह आगम रूप भाव-पावश्यक है। ज्ञान-क्रिया उभय रूप जो परिणाम हैं, वह नोआगम रूप भाव-प्रावश्यक है / षडावश्यक के पर्याय और उसके अधिकार पर विचार किया गया है। सामायिक पर चिन्तन करते हुए कहा है-समभाव ही सामायिक का लक्षण है। सभी द्रव्यों का अधार आकाश है, वैसे ही सभी सद्गुणों का आधार सामायिक है / सामायिक के दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीन भेद [ 56 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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