________________ प्रशरण आदि द्वादश अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन होता है। मन की चंचलता नष्ट होकर शुभ ध्यान का अभ्यास निरन्तर बढ़ता है। नियुक्तिकार ने शुभ ध्यान पर चिन्तन करते हुए कहा है कि अन्तर्मुहूतं तक जो चित्त की एकाग्रता है, वही ध्यान है। उस ध्यान के प्रात, रौद्र, धर्म और शुक्ल-ये चार प्रकार बताये हैं। प्रथम दो ध्यान संसार-अभिवृद्धि के हेतु होने से उन्हें अपध्यान कहा है और अन्तिम दो ध्यान मोक्ष का कारण होने से प्रशस्त हैं। ध्यान और कायोत्सर्ग के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की जानकारी दी गई है जो ज्ञानवर्द्धक है। श्रमण को अपने सामर्थ्य के अनुसार कायोत्सर्ग करना चाहिये। शक्ति से अधिक समय तक कायोत्सर्ग करने से अनेक प्रकार के दोष समुत्पन्न हो सकते हैं। कायोत्सर्ग के समय कपटपूर्वक निद्रा लेना, सूत्र और अर्थ की प्रतिपृच्छा करना, कांटा निकालना, लघुशंका आदि करने के लिये चले जाना उचित नहीं है। इससे उस कार्य के प्रति उपेक्षा प्रकट होती है। कायोत्सर्ग के घोटक प्रादि 19 दोष भी बताए हैं। जो देहबुद्धि से परे है, वही व्यक्ति कायोत्सर्ग का सच्चा अधिकारी है। छठे अध्ययन प्रत्याख्यान का प्रत्याख्यान, प्रत्याख्याता, प्रत्याख्येय, पर्षद, कथनविधि और फल, इन छह दृष्टियों से विवेचन किया गया है। प्रत्याख्यान के नाम, स्थापना, द्रव्य, अदित्सा, प्रतिषेध और भाव, ये छह प्रकार हैं / प्रत्याख्यान की विशुद्धि श्रद्धा, ज्ञान, विनय, अनुभाषणा, अनुपालन और भाव-इन छह प्रकार से होती है। प्रत्याख्यान से प्राश्रव का निरुन्धन होता है। समता की सरिता में अवगाहन किया जाता है। चारित्र की आराधना करने से कर्मों की निर्जरा होती है। अपूर्वकरण कर क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर केवलज्ञान प्राप्त होता है और अन्त में मोक्ष का अव्याबाध सुख मिलता है। प्रत्याख्यान का अधिकारी वही साधक है जो विक्षिप्त और अविनीत न हो। आवश्यकनियुक्ति में श्रमण जीवन को तेजस्वी-वर्चस्वी बनाने वाले जितने भी नियमोपनियम हैं, उन सबकी चर्चा विस्तार से की गई है। प्राचीन ऐतिहासिक तथ्यों का प्रतिपादन भी इस नियुक्ति में हुआ है। प्रस्तुत नियुक्ति के रचयिता प्राचार्य भद्रबाह हैं। इतिहासविज्ञों का अभिमत है कि जैन इतिहास में भद्रबाहु नामक अनेक प्राचार्य हुए हैं, उनमें एक चतुर्दश पूर्वधारी प्राचार्य भद्रबाह नेपाल में महाप्राणायाम नामक योग की साधना करने गए थे, वे श्वेताम्बर परम्परा की दृष्टि से छेदसूत्रकार थे। दिगम्बर परम्परा के अनुसार वे भद्रबाहु नेपाल न जाकर दक्षिण में गए थे। पर हमारी दृष्टि से ये दोनों भद्रबाहु एक न होकर पृथक्-पृथक् रहे होगे / क्योंकि जो नेपाल गये थे वे दक्षिण में नहीं गए हैं और जो दक्षिण में गए थे वे नेपाल नहीं गए थे। नियुक्तिकार भद्रबाहु प्रसिद्ध ज्योतिविद् वराहमिहिर के सहोदर भ्राता थे। उनका समय विक्रम की छठी शताब्दी है। आगमप्रभाकर पुण्यविजयजी का मन्तव्य है कि श्रुतकेवली भद्रबाह ने नियुक्तियां प्रारम्भ की और द्वितीय भद्रबाहु तक उन नियुक्तियों में विकास होता रहा। इस प्रकार नियुक्तियों में कुछ गाथाएं बहुत ही प्राचीन है तो कुछ अर्वाचीन हैं। वर्तमान में जो नियुक्तियां हैं, वे चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाह के द्वारा पूर्ण रूप से रचित नहीं हैं। क्योंकि नियुक्तिकार भद्रबाह ने छेदसूत्रकार भद्रबाह को नमस्कार किया है। हमारे अभिमतानुसार समवायांग, स्थानांग एवं नन्दी में जहाँ पर द्वादशांगी का परिचय प्रदान किया गया है, वहाँ पर 'संखेज्जाम्रो निज्जुत्तीप्रो' यह पाठ प्राप्त होता है। इससे यह स्पष्ट है कि नियुक्तियों की परम्परा आगम काल में भी थी। प्रत्येक आचार्य या उपाध्याय अपने शिष्यों को प्रागम का रहस्य हृदयंगम कराने के लिये अपनी-अपनी दृष्टि से नियुक्तियों की रचना करते रहे होंगे। जैसे वर्तमान प्रोफेसर विद्यार्थियों को नोट्स लिखवाते हैं, वैसे ही नियुक्तियां रही होंगी। उन्हीं को मूल आधार बनाकर द्वितीय भद्रबाह ने नियुक्तियों को अन्तिम रूप दिया होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org