________________ ज्ञान के वर्णन के पश्चात् नियुक्ति में षडावश्यक का निरूपण है। उसमें सर्वप्रथम सामायिक है। चारित्र का प्रारम्भ ही सामायिक से होता है। मुक्ति के लिये ज्ञान और चारित्र ये दोनों प्रावश्यक हैं। सामायिक का अधिकारी श्रुतज्ञानी होता है। वह क्षय, उपशम, क्षयोपशम कर केवलज्ञान और मोक्ष को प्राप्त करता है। सामायिकश्रुत का अधिकारी ही तीर्थंकर जैसे गौरवशाली पद को प्राप्त करता है। तीर्थंकर केवलज्ञान होने के पश्चात् जिस श्रुत का उपदेश करते हैं-चही जिनप्रवचन हैं। उस पर विस्तार से चिन्तन करने के पश्चात् सामायिक पर उद्देश्य, निर्देश, निर्गम ग्रादि 26 बातों के द्वारा विवेचन किया गया है। मिथ्यात्व का निर्गमन किस प्रकार किया जाता है, इस प्रश्न पर चिन्तन करते हुए नियुक्तिकार ने महावीर के पूर्व भवों का वर्णन, उसमें कुलकरों की चर्या, भगवान् ऋषभदेव का जीवन-परिचय आदि विस्तृत निह्नवों का भी निरूपण है।। नय दृष्टि से सामायिक पर चिन्तन करने के पश्चात् सम्यक्त्व, श्रुत और चारित्र--ये तीन सामायिक के भेद किये गये हैं। जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में रमण करती है, जिसके अन्तर्मानस में प्राणिमात्र के प्रति समभाव का समुद्र ठाठे मारता है वही सामायिक का सच्चा अधिकारी है। सामायिकसूत्र के प्रारम्भ में नमस्कार महामन्त्र आता है। इसलिये नमस्कार मंत्र की उत्पत्ति, निक्षेप, पद, पदार्थ, प्ररूपणा, वस्तु, आक्षेप, प्रसिद्धि, क्रम, प्रयोजन और फल-इन ग्यारह दृष्टियों से नमस्कार महामंत्र पर चिन्तन किया गया है जो साधक के लिये बहुत ही उपयोगी है। (सर्वविरति) सामायिक में तीन करण और तीन योग से सावध प्रवृत्ति का त्याग होता है। दूसरा अध्ययन चतुर्विशतिस्तव का है। इसमें नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन छह निक्षेपों की दृष्टि से प्रकाश डाला गया है। तृतीय अध्ययन वन्दना का है। चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म, ये वन्दना के पर्यायवाची हैं। बन्दना किसे करनी चाहिये ? किसके द्वारा होनी चाहिये ? कब होनी चाहिये ? कितनी बार होनी चाहिये ? कितनी बार सिर झुकना चाहिये? कितने आवश्यकों से शुद्धि होनी चाहिये? कितने दोषों से मुक्ति होनी चाहिये ? वन्दना किसलिये करनी चाहिये ? प्रभति नौ बातों पर विचार किया गया है। वही श्रमण वन्दनीय है जिसका आचार उत्कृष्ट है और विचार निर्मल है। जिस समय वह प्रशान्त, आश्वस्त और उपशान्त हो, उसी समय वन्दना करनी चाहिये। चतर्थ अध्ययन का नाम प्रतिक्रमण है। प्रमाद के कारण ग्रात्मभाव से जो आत्मा मिथ्यात्व आदि परस्थान में जाता है, उसका पुनः अपने स्थान में प्राना प्रतिक्रमण है। प्रतिचरणा, परिहरणा, वारणा, निवृत्ति, निन्दा, गर्हा, शुद्धि-ये प्रतिक्रमण के पर्यायवाची हैं। इनके अर्थ को समझाने के लिये नियुक्ति में अनेक दृष्टान्त दिये गये हैं / नागदत्त प्रादि की कथाएँ दी गई हैं। इसके पश्चात् पालोचना, निरपलाप, आपत्ति, दृढधर्मता प्रादि 32 योगों का संग्रह किया गया है और उन्हें समझाने के लिये महागिरि, स्थलभद्र, धर्मघोष, सुरेन्द्रदत्त वारतक, वैद्य धनवन्तरि, करकण्डु, आर्य पुष्पभूति आदि के उदाहरण भी दिये गये हैं। साथ ही स्वाध्यायअस्वाध्याय के सम्बन्ध में प्रकाश डाला गया है। पाँचवें अध्ययन में कायोत्सर्ग का निरूपण है। कायोत्सर्ग और व्युत्सर्ग ये एकार्थवाची हैं। कुछ दोष आलोचना से ठीक होते हैं तो कुछ दोष प्रतिक्रमण से और कुछ दोष कायोत्सर्ग से ठीक होते हैं। कायोत्सर्ग से देह और बुद्धि की जड़ता मिटती है। सुख-दुःख को सहन करने की क्षमता समुत्पन्न होती है। उसमें अनित्य, [ 54 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org