________________ नमस्कार एवं उसके प्रयोजन पर प्रकाश डाला है। उसके बाद सामायिक के पाठ करेमि भन्ते' की व्याख्या करके छह प्रकार के कर्म का विस्तृत निरूपण किया गया है / चतुविशतिस्तव में स्तव, लोक, उद्योत, धर्म-तीर्थकर आदि पदों पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन किया है। तृतीय वन्दना अध्ययन में वन्दन के योग्य श्रमण के स्वरूप का प्रतिपादन किया है और चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजा, कर्म, विनयकर्म को दृष्टान्त देकर समझाया गया है / अवन्द्य को वन्दन करने का निषेध किया गया है। चतुर्थ अध्ययन में प्रतिक्रमण की परिभाषा प्रतिक्रामक, प्रतिक्रमण, प्रतिकान्तव्य इन तीन दृष्टियों से की गई है। प्रतिचरणा, परिहरणा, वारणा, निवृत्ति, निन्दा, गहीं, शुद्धि और आलोचना पर विवेचना करते हुए उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं / कायिक, वाचिक, मानसिक, अतिचार, ईर्यापथिकी विराधना, प्रकाम शय्या, भिक्षाचर्या, स्वाध्याय आदि में लगने वाले अतिचार, चार विकथा, चार ध्यान, पांच क्रिया, पांच कामगुण, पांच महाव्रत, पांच समिति आदि का प्रतिपादन किया है। शिक्षा के ग्रहण और प्रासेवन ये दो भेद किए हैं। अभयकुमार का विस्तार से जीवन-परिचय दिया है। साथ ही सम्राट श्रेणिक, चेल्लणा, सुरसा, कोणिक, चेटक, उदायी, महापद्मनंद, शकडाल, वररुचि, स्थलभद्र आदि ऐतिहासिक व्यक्तियों के चरित्र भी दिये गये हैं। व्रत की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए कहा है--प्रज्ज्वलित अग्नि में प्रवेश करना श्रेयस्कर है, किन्तु व्रत का भंग करना अनुचित है। विशुद्ध कार्य करते हुए मरना श्रेष्ठ है, किन्तु शील से स्खलित हो कर जीवित रहना अनुचित है। पञ्चम अध्ययन में कायोत्सर्ग का वर्णन है। कायोत्सर्ग एक प्रकार से आध्यात्मिक चिकित्सा है। कायोत्सर्ग में काय और उत्सर्ग ये दो पद हैं / काय का नाम, स्थापना आदि बारह प्रकार के निक्षेपों से वर्णन किया है और उत्सर्ग का छह निक्षेपों से। कायोत्सर्ग के चेष्टाकायोत्सर्ग और अभिभवकायोत्सर्ग ये दो भेद हैं। गमन आदि में जो दोष लगा हो उसके पाप से निवृत्त होने के लिये चेष्टाकायोत्सर्ग किया जाता है। हूण प्रादि से पराजित होकर जो कायोत्सर्ग किया जाता है वह अभिभवकायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग के प्रशस्त एवं अप्रशस्त ये दो भेद हैं और फिर उच्छित आदि नौ भेद हैं। श्रुत, सिद्ध की स्तुति पर प्रकाश डालकर क्षामणा की विधि पर विचार किया है। अन्त में कायोत्सर्ग के दोष, फल आदि पर भी प्रकाश डाला गया है। षष्ठ अध्ययन में प्रत्याख्यान का विवेचन है। इसमें सम्यक्त्व के अतिचार, श्रावक के बारह व्रतों के अतिचार, दस प्रत्याख्यान, छह प्रकार की विशुद्धि, प्रत्याख्यान के गुण, आगार आदि पर अनेक दृष्टान्तों के साथ विवेचन किया है। इस प्रकार आवश्यकचूणि जिनदासगणी महत्तर की एक महनीय कृति है। आवश्यकनियुक्ति में आये हए सभी विषयों पर चणि में विस्तार के साथ स्पष्टता की गई है। इसमें अनेक पौराणिक, ऐतिहासिक महापुरुषों के जीवन उट्टङ्कित किये गये हैं, जिनका ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। टीकासाहित्य मूल पागम, नियुक्ति और भाष्यसाहित्य प्राकृत भाषा में निर्मित हैं। चणिसाहित्य में प्रधान रूप से प्राकृत भाषा का और गौण रूप से संस्कृत भाषा का प्रयोग हया है। उसके पश्चात संस्कृतटीका का युग आया। जैन साहित्य में टीका का युग स्वणिम युग है / नियुक्ति में प्रागमों के शब्द की व्युत्पत्ति और व्याख्या है। भाष्यसाहित्य में विस्तार से आगमों के गम्भीर भावों का विवेचन है / चणिसाहित्य में निगढ़ भावों को लोक-कथानों के आधार से समझाने का प्रयास है तो टीकासाहित्य में प्रागमों का दार्शनिक दृष्टि से विश्लेषण है। टीकाकारों ने प्राचीन [ 59 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org