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________________ का संकल्पबद्ध होना यावश्यक है। कितने ही जैनाचायों ने दीर्घ श्वास को उपयोगी माना है किन्त तेज श्वास को नहीं। उनका मन्तव्य है कि तीन श्वास की चोट से शरीर और मन अत्यधिक थकान के कारण शिथिल हो जाते हैं, चेतना के प्रति सावधानता की स्थिति नहीं होती / उस अवस्था में मुर्छा और थकान के कारण प्राने वाली तन्द्रा रूप शून्यता से अपने-आप को बचाना भी कठिन हो जाता है / इसलिये श्वास को उखाड़ना नहीं चाहिये / उसे लम्बा और गहरा करना चाहिये / जितना श्वास धीमा होता है, शरीर में उतनी ही क्रियाशीलता न्यून हो जाती है। श्वास की सूक्ष्मता ही शान्ति है। प्रारम्भ में ऊर्जा का विस्तार और नया उत्पादन नहीं होता / केवल ऊर्जा का संरक्षण होता है और कुछ दिनों के पश्चात् वह संचित ऊर्जा मन को एक दिशागामी बनाकर उसे ध्येय में लगाती है / श्वोस की मंदता से शरीर भी निष्क्रिय हो जाता है, प्राण शान्त हो जाते हैं / मन निर्विचार हो जाता है और अन्तर्मानस में तीव्रतम वैराग्य उबुद्ध हो जाता है। ज्यों-ज्यों श्वास चंचल होता है, त्यों-त्यों मन भी चंचल होता है। श्वास के स्थिर होने पर मन की चंचलता भी नष्ट हो जाती है।' 02 श्वास शरीर में रहा हुआ यंत्र है जिसके अधिक सक्रिय होने पर शरीरकेन्द्रों में उथल-पुथल मच जाती है और सामान्य होते ही उसमें एक प्रकार की शान्ति व्याप्त हो जाती है / श्वास की निष्क्रियता ही मन की शान्ति और समाधि है / जब हमें क्रोध आता है उस समय हमारी सांस की गति तीव्र हो जाती है पर ध्यान में श्वासगति शान्त होने से उसमें मन की स्थिरता होती है। कायोत्सर्ग की योग्यता प्रतिक्रमण के पश्चात आती है। प्रतिक्रमण में पापों की आलोचना हो जाने से चित्त पूर्ण रूप से निर्मल बन जाता है, जिससे धर्मध्यान और शुक्लध्यान में साधक एकाग्रता प्राप्त कर सकता है। यदि साधक बिना चित्तशुद्धि किये ही कायोत्सर्ग करता है तो उसे उतनी सफलता प्राप्त नहीं होती। एतदर्थ ही षडावश्यक में प्रतिक्रमण के पश्चात कायोत्सर्ग का विधान किया है। कायोत्सर्ग को सही रूप से सम्पन्न करने के लिये यह आवश्यक है कि कायोत्सर्ग के दोषों से बचा जाये। प्रवचनसारोद्धार प्रति ग्रन्थों में कायोत्सर्ग के 19 दोष वर्णित हैं--१. घोटक दोष 2. लता दोष 3. स्तंभकुड्य दोष 4. माल दोष 5. शबरी दोष 6. वधु दोष 7. निगड़ दोष 8. लम्बोत्तर दोष 9. स्तन दोष 10. उद्धिका दोष 11. संयती दोष 12. खलीन दोष 13. वायस दोष 14. कपित्य दोष 15. शीर्षोत्कम्पित दोष 16. मूक दोष 17 अंगुलिका 5 दोष 18. वारुणी दोष और 19. प्रज्ञा दोष / इन दोषों का मुख्य सम्बन्ध शरीर से तथा बैठने और खड़े रहने के ग्रासन आदि से है / अत: साधक को इन दोषों से मुक्त होकर कायोत्सर्ग की साधना करनी चाहिये / जैसे जैनधर्म में कायोत्सर्ग का विधान है, उस पर अत्यधिक बल दिया है, वैसे ही न्यूनाधिक रूप में वह अन्य धार्मिक परम्परामों में भी मान्य रहा है। बोधिचर्यावतार103 ग्रन्थ में प्राचार्य शान्तिरक्षित ने लिखा है—सभी देहधारियों को जिस प्रकार सुख हो, वैसे ही यह शरीर मैंने न्यौछावर कर दिया है। वे चाहे इसकी हत्या करें, निन्दा करें या इस पर धल फैकें, चाहे खेलें, चाहे हँसें, चाहे विलास करें। मुझे इसकी क्या चिन्ता? क्योंकि मैंने शरीर उन्हें ही दे डाला है / इस प्रकार बे देह व्युत्सर्जन की बात करते हैं। कायोत्सर्ग ध्यानसाधना 102. चले बाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत् / निष्फलं तं विजानीयात् श्वासो यत्र लयं गतः / / 103. बोधिचर्यावतार 3112-13 [ 47 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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