________________ 1. स्नायु में शर्करा कम हो जाती है। 2. लैक्टिक एसिड स्नायु में एकत्रित होती है / 3. लेक्टिक एसिड की अभिवृद्धि होने पर शरीर में उष्णता बढ़ जाती है / 4. स्नायुतन्त्र में थकान का अनुभव होता है। 5. रक्त में प्राणवायु की मात्रा न्यून हो जाती है। किन्तु कायोत्सर्ग से१. ऐसिड पुनः शर्करा में परिवर्तित हो जाता है। 2. लैक्टिक एसिड का स्नायुओं में जमाव न्यून हो जाता है / 3. लैक्टिक एसिड की न्यूनता से शारीरिक उष्णता न्यून होती है। 4. स्नायुतंत्र में अभिनव ताजगी आती है। 5. रक्त में प्राणवायु की मात्रा बढ़ जाती है। इस प्रकार स्वास्थ्यदृष्टि से कायोत्सर्ग का अत्यधिक महत्त्व है। मन, मस्तिष्क और शरीर का परस्पर गहरा सम्बन्ध है / जब इन तीनों में सामंजस्य नहीं होता तब स्नायविक तनाव समुत्पन्न होते हैं। जब हम कोई कार्य करते हैं तब तन और मन में सन्तुलन रहना चाहिये / जब सन्तुलन नहीं रहता तब स्नायविक तनाव बढ़ जाता है। तन अलग कार्य कर रहा है और मन अलग स्थान पर भटक रहा है तो स्नायविक तनाव हो जाता है। कायोत्सर्ग इस स्नायविक तनाव को दूर करने का एक सुन्दर उपाय है। कायोत्सर्ग में सर्वप्रथम शिथिलीकरण की आवश्यकता है। यदि बैठे-बैठे ही साधक कायोत्सर्ग करना चाहता है तो वह सुखासन या पद्मासन से बैठे। फिर रीढ़ की हड्डी और गर्दन को सीधा करे, उसमें झुकाव और तनाव न हो / अंगोपांग शिथिल और सीधे सरल रहें। उसके पश्चात् दीर्घ श्वास ले। बिना कष्ट के जितना लम्बा श्वास ले सके उतना लम्बा करने का प्रयास करे। इससे शरीर और मन इन दोनों के शिथिलीकरण में बहुत सहयोग मिलेगा। पाठ-दस बार दीर्घ श्वास लेने के पश्चात् वह क्रम सहज हो जायेगा। स्थिर बैठने से अपने आप ही कुछ-कुछ शिथिलीकरण हो सकता है और उसके पश्चात् जिस अंग को शिथिल करना हो उसमें मन को केन्द्रित करे। जैसे सर्वप्रथम गर्दन, कन्धा, सीना, पेट, दायें बायें पृष्ठ भाग, भुजाएं, हाथ, हथेली, अंगुली, कटि, पैर आदि सभी की मांसपेशियों को शिथिल किया जाता है। इस प्रकार शारीरिक अवयव व मांसपेशियों के शिथिल हो जाने से स्थल शरीर से सम्बन्ध विच्छेद होकर सूक्ष्म शरीर से--तंजस और कार्मण से सम्बन्ध स्थापित किया जाता है। तेजस शरीर से दीप्ति प्राप्त होती है / कार्मण शरीर के साथ सम्बन्ध स्थापित कर भेद-विज्ञान का अभ्यास किया जाता है। इस तरह शरीर-प्रात्मैक्य की जो भ्रान्ति है, वह भेदविज्ञान से मिट जाती है। शरीर एक बर्तन के सदृश है। उसमें श्वास, इन्द्रिय, मन और मस्तिष्क जैसी अनेक शक्तियां रही हई हैं। उन शक्तियों से परिचित होने का सरल मार्ग कायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग से श्वास सूक्ष्म होता है। शरीर और मन के बीच में श्वास है। श्वास के पांच प्रकार बताये गये हैं-१. सहज श्वास, 2. शान्त श्वास, 3. उखड़ी श्वास, 4. विक्षिप्त श्वास और 5. तेज श्वास / साधक पहले अभ्यास में गहरा और लम्बा श्वास लेता है। दूसरे अभ्यासक्रम में लयबद्ध श्वास का अभ्यास किया जाता है। तृतीय क्रम में सूक्ष्म, शान्त और जमे हुए श्वास का अभ्यास किया जाता है। चतुर्थ अभ्यासक्रम में सहज कुम्भक की स्थिति होती है / इस स्थिति का निर्माण प्राणायाम, प्रलम्ब जाप और ध्यान से किया जाता है। प्राणायाम का सीधा प्रभाव शरीर पर गिरता है किन्तु मनोग्रन्थि पर चोट करने के लिये मन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org