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________________ का ही एक प्रकार है / तथागत बुद्ध ने ध्यानसाधना पर बल दिया। ध्यानसाधना बौद्ध परम्परा में प्रतीत काल से चली आ रही है। विपश्यना आदि में भी देह के प्रति ममत्व हटाने का उपक्रम है। प्रत्याख्यान छठे आवश्यक का नाम प्रत्याख्यान है। प्रत्याख्यान का अर्थ है-त्याग करना / 04 प्रत्याख्यान शब्द की रचना प्रति = आ-पाख्यान, इन तीनों शब्दों के संयोग से होती है। अविरति और असंयम के प्रतिकूल रूप में मर्यादा के साथ प्रतिज्ञा ग्रहण करना प्रत्याख्यान है।" 05 दूसरे शब्दों में कहें तो आत्मस्वरूप के प्रति अभिव्याप्त रूप से, जिससे अनाशंसा गुण समुत्पन्न हो, इस प्रकार का प्राख्यान अर्थात कथन करना प्रत्याख्यान है। और भी अधिक स्पष्ट शब्दों में कहें तो भविष्य काल के प्रति पा–मर्यादा के साथ अशुभ योग से निवृत्ति और शुभ योग में प्रवृत्ति का आख्यान करना प्रत्याख्यान है। इस विराट विश्व में इतने अधिक पदार्थ हैं, जिनकी परिगणना करना सम्भव नहीं। और उन सब वस्तुओं को एक ही व्यक्ति भोगे, यह भी कभी सम्भव नहीं / चाहे कितनी भी लम्बी उम्र क्यों न हो, तथापि एक मानव संसार की सभी वस्तुओं का उपभोग नहीं कर सकता / मानव की इच्छाएं असीम हैं। वह सभी वस्तुओं को पाना चाहता है। चक्रवर्ती सम्राट को सभी वस्तुएं प्राप्त हो जाएं तो भी उसकी इच्छाओं का अन्त नहीं प्रा सकता / इच्छाएं दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ती रहती हैं। इच्छाओं के कारण मानव के अन्तर्मानस में सदा अशान्ति बनी रहती है। उस अशान्ति को नष्ट करने का एकमात्र उपाय प्रत्याख्यान है। प्रत्याख्यान में साधक अशान्ति का मूल कारण आसक्ति और तृष्णा को नष्ट करता है / जब तक आसक्ति बनी रहती है तब तक शान्ति उपलब्ध नहीं हो सकती। सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, बन्दन, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग के द्वारा आत्मशुद्धि की जाती है किन्तु पुनः आसक्ति रूपी तस्करराज अन्तर्मानस में प्रविष्ट न हो, उसके लिये प्रत्याख्यान अत्यन्त आवश्यक है / एक बार वस्त्र को स्वच्छ बना दिया गया, वह पुनः मलिन न हो, इसके लिये उस वस्त्र को कपाट में रखते हैं, इसी तरह मन में मलिनता न आये, इसलिये प्रत्याख्यान किया जाता है। अनुयोगद्वार में प्रत्याख्यान का एक नाम 'गुणधारण' दिया गया है। गुणधारण से तात्पर्य है-व्रत रूपी गुणों को धारण करना। मन, वचन और काया के योगों को रोककर शुभ योगों में प्रवृत्ति को केन्द्रित किया जाता है। शुभ योगों में केन्द्रित करने से इच्छाओं का निरुन्धन होता है / तृष्णाएं शान्त हो जाती हैं। अनेक सदगुणों की उपलब्धि होती है। एतदर्थ ही प्राचार्य भद्रबाहु ने कहा--प्रत्याख्यान से संयम होता है / संयम से प्राश्रव का निरुन्धन होता है और पाश्रव के निरुन्धन से तृष्णा का अन्त हो जाता है / 10 तृष्णा के अन्त से अनुपम उपशमभाव समुत्पन्न होता है और उससे प्रत्याख्यान विशुद्ध बनता है / 100 उपशमभाव की विशुद्धि से चारित्रधर्म प्रकट होता है। चारित्र से कर्म निजीर्ण होते हैं। उससे 104. प्रवृत्तिप्रतिकूलतया पा-मर्यादया ख्यान --प्रत्याख्यानम् / -योगशास्त्रवृत्ति 105. अविरतिस्वरूपप्रभृति प्रतिकूलतया प्रा-मर्यादया प्राकारकरणस्वरूपया आख्यानं-कथनं प्रत्याख्यानम् / -प्रवचनसारोद्धारवृत्ति 106. पच्चक्खाणंमि कए, पासवदाराइं हंति पिहियाई / पासववुच्छेएणं तण्हा-वच्छेयणं होइ / / -आवश्यकनियुक्ति 1594 107. तण्हा-वोच्छेदेण उ, अउलोवसमो भवे मणुस्साणं / अउलोवसमेण पुणो, पच्चक्खाणं हवइ सुद्धं / / -प्रावश्यकनियुक्ति, 1595 [ 48 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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