________________ 0 4 000 75 0 m ~ 0 ~ विजयोदया चतुविशतिस्तव श्लोक उच्छ्वास 1. देवसिक 25 2. रात्रिक 123 3. पाक्षिक 4. चातुर्मासिक 100 400 5. सांवत्सरिक 125 500 प्रवचनसारोद्धार और विजयोदयावत्ति में जो उच्छवास संख्या कायोत्सर्ग की दी गई है, उसमें एकरूपता नहीं है। यह ऊपर की पंक्तियों में जो चार्ट दिया गया है, उससे सहज जाना जा सकता है। दिगम्बर परम्परा के प्राचार्य अमितगति 34 ने यह विधान किया है-देवसिक कायोत्सर्ग में 108 और रात्रि के कायोत्सर्ग में 54 उच्छ्वासों का ध्यान करना चाहिये और अन्य कायोत्सर्ग में 27 उच्छ्वासों का ध्यान करना चाहिये / 27 उच्छ्वासों में नमस्कार मन्त्र की नौ प्रावृत्तियां हो जाती हैं, क्योंकि 3 उच्छ्वासों में एक नमस्कार महामंत्र पर ध्यान किया जाता है। 'नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं' एक उच्छवास में, 'नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं' दूसरे उच्छ्वास में तथा 'नमो लोए सवसाहूणं' तीसरे उच्छ्वास में - इस प्रकार 3 उच्छ्वासों में एक नमस्कार महामन्त्र का ध्यान पूर्ण होता है। प्राचार्य अमितगति का अभिमत है कि श्रमण को दिन और रात में कुल अट्ठाईस बार कायोत्सर्ग करना चाहिये / 5 स्वाध्यायकाल में 12 बार, वन्दनकाल में 6 बार, प्रतिक्रमणकाल में 8 बार, योगक्ति काल में 2 बार इस प्रकार कुल अट्टाईस बार कायोत्सर्ग करना चाहिये / प्राचार्य अपराजित का मन्तव्य है कि पंच महाव्रत सम्बन्धी अतिक्रमण होने पर 108 उच्छ्वासों का कायोत्सर्ग करना चाहिये। कायोत्सर्ग करते समय मन की चंचलता से या उच्छवासों की संख्या की परिगणना में संदेह समुत्पन्न हो जाये तो पाठ उच्छ्वासों का और अधिक कायोत्सर्ग करना चाहिये / श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं के साहित्य के पर्यवेक्षण करने पर यह स्पष्ट है कि अतीत काल में श्रमण साधकों के लिये कायोत्सर्ग का विधान विशेष रूप से रहा है। उत्तराध्ययन के श्रमण समाचारी अध्ययन में और दशवकालिक चलिका में श्रमण को पुनः-पुनः कायोत्सर्ग करने वाला बताया है। कायोत्सर्ग 94. अष्टोत्तरशतोच्छवास: कायोत्सर्गः प्रतिक्रमे / सान्ध्ये प्राभातिके वार्धमन्यस्तत् सप्तविंशतिः / / सप्तविंशतिरुच्छ्वासाः संसारोन्मूलनक्षमे / सन्ति पंचनमस्कारे नवधा चिन्तिते सति / / --अमितगति श्रावकाचार 8,68-69 95. अष्टविंशति संख्याना: कायोत्सर्गा मता जिनः / अहोरात्रगताः सर्व षडावश्यककारिणाम् // स्वाध्याये द्वादश प्राज्ञ: वन्दनायां षडीरिताः / अष्टौ प्रतिक्रमे योगभक्तौ तौ द्वावुदाहृतो / / -अमितगति श्रावकाचार,६६-६७ 96. मूलाराधना 2, 116 विजयोदया वृत्ति 97. उत्तराध्ययन 26, 39-51 98. अभिक्खणं काउस्सग्गकारी / ---दशवकालिक चलिका 2-7 [ 44 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .