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________________ यो प्रात्मशुद्धि के लिये मन को एकाग्र कर कायोत्सर्ग करना और दूसरा संकट पाने पर। जैसे-विप्लव, अग्निकांड, दुभिक्ष प्रादि / चेष्टाकायोत्सर्ग का काल उच्छवास पर आधारित है। यह कायोत्सर्ग विभिन्न स्थितियों में 8, 25, 27, 300, 500 और 1008 उच्छवास तक किया जाता है / अभिभवकायोत्सर्ग का काल जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट एक वर्ष का है। बाहबलि ने एक वर्ष तक यह कायोत्सर्ग किया था। दोषविशुद्धि के लिये जो कायोत्सर्ग किया जाता है वह कायोत्सर्ग देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक रूप से पांच प्रकार का है। षडावश्यक में जो कायोत्सर्ग है, उसमें चतुर्विंशतिस्तव का ध्यान किया जाता है। चविंशतिस्तव में सात श्लोक और अट्ठाईस चरण हैं।'' एक उच्छ्वास में एक चरण का ध्यान किया जाता है / एक चतुर्विंशतिस्तव का ध्यान पच्चीस उच्छ्वासों में सम्पन्न होता है / प्रथम श्वास लेते समय मन में 'लोगस्स उज्जोयगरे' कहा जायेगा और सांस को छोड़ते समय 'धम्मतित्थयरे जिणे' कहा जायेगा। द्वितीय सांस लेते समय 'अरिहंते कित्तइस्सं' और छोड़ते समय 'चउवीस पि केवली' कहा जायेगा / इस प्रकार चतुर्विशतिस्तव का कायोत्सर्ग होता है। प्रवचनसारोबार में और विजयोदयावत्ति 3 में कायोत्सर्ग का ध्येय, परिमाण और कालमान इस प्रकार दिया गया है प्रवचनसारोद्धार चतुविशतिस्तव श्लोक चरण उच्छ्वास 1. देवसिक 25 100 2. रात्रिक 123 2. पाक्षिक 300 4. चातुर्मासिक 125 500 5. सांवत्सरिक 252 1008 300 500 90. (क) तत्रचेष्टाकायोत्सर्गोऽष्ट-पंचविंशति-सप्तविंशति त्रिशशतपञ्चशतप्रष्टोत्तरसहस्रोच्छ्वासान् यावद् भवति / अभिभव-कायोत्सर्गस्तु मुहूर्तादारभ्य संवत्सरं यावद् बाहुबलिरिव भवति। योगशास्त्र 3, पत्र 250 (ख) अन्तर्मुहूर्तः कायोत्सर्गस्य जघन्यः कालः वर्षमुत्कृष्टः। -मूलाराधना 2, 116, विजयोदयावृत्ति 91. योगशास्त्र, 3 92. चत्तारि दो दुवालस, वीस चत्ता य हंति उज्जोया। देवसिय राय पक्खिय, चाउम्मासे य बरिसे य॥ पणवीस अद्धतेरस, सलोग पन्नतरी य बोद्धन्वा / सयमेगं पणवीस, बे बावण्णा य बरिसंमि / / सायं सयं गोसद्ध तिन्नेव सया हवेति पक्खम्मि। पंच य चाउम्मासे, बरिसे अट्ठोत्तर सहस्सा // सायाह्न उच्छ्वासशतकं प्रत्यूषसि पंचाशत, पक्षे त्रिशतानि / चतुर्ष मासेसु चतुःशतानि, पंचशतानि संवत्सरे उच्छ्वासानाम् // अष्टौ प्रतिक्रमे योगभक्तौ तौ द्वावदाहृतौ / मूलाराधना-विजयोदयावृत्ति 1,116 { 43 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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