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________________ खड़े होकर कायोत्सर्ग करने की एक विशेष परम्परा रही है / क्योंकि तीर्थंकर प्रायः इसी मुद्रा में कायोत्सर्ग करते हैं। आचार्य अपराजित ने लिखा है कि कायोत्सर्ग करने वाला साधक शरीर से निष्क्रिय होकर खम्भे की तरह खड़ा हो जाय / दोनों बाहुओं को घुटनों की ओर फैला दे। प्रशस्त ध्यान में लीन हो जाये। शरीर को एकदम अकड़ा कर न खड़ा रखे और न एकदम झुकाकर ही / वह सममुद्रा में खड़ा रहे। कायोत्सर्म में कष्टों और परीषहों को समभाव से सहन करे। कायोत्सर्ग जिस स्थान पर किया जाए, वह स्थान एकान्त, शान्त और जीव-जन्तुओं से रहित हो / द्रव्यकायोत्सर्ग, भावकायोत्सर्ग की ओर बढ़ने का एक उपक्रम है। द्रव्य स्थूल है, स्थूलता से सूक्ष्मता को ओर बढ़ा जाता है। द्रव्यकायोत्सर्ग में बाह्य वस्तुओं का परित्याग किया जाता है, जैसे-उपधि का त्याग करना, भक्त-पान आदि का त्याग करना, पर भावकायोत्सर्ग में तीन बातें आवश्यक हैं..कषाय-व्युत्सर्ग, संसारव्युत्सर्ग और कर्मव्युत्सर्ग / कषायव्युत्सर्ग में चारों प्रकार के कषायों का परिहार किया जाता है। क्षमा के द्वारा क्रोध को, विनय के द्वारा मान को, सरलता से माया को तथा सन्तोष से लोक को जीता जाता है / संसारव्युत्सर्ग में संसार का परित्याग किया जाता है। संसार चार प्रकार का है-द्रव्यसंसार, क्षेत्रसंसार, कालसंसार और भावसंसार / 87 द्रव्यसंसार चार गति रूप है। क्षेत्रसंसार अधः, ऊर्ध्व और मध्य लोक रूप है। कालसंसार एक समय से लेकर पुद्गलपरावर्तन काल तक है। भावसंसार जीव का विषयासक्ति रूप भाव है, जो संसार-भ्रमण का मूल कारण है / द्रव्य, क्षेत्र, काल संसार का त्याग नहीं किया जा सकता है / आचारांग८ में कहा है जो इन्द्रियों के विषय हैं- वे ही वस्तुतः संसार हैं और उनमें आसक्त हुआ मात्मा संसार में परिभ्रमण करता है। पागम साहित्य में यत्र-तत्र "संसारकतारे" शब्द का व्यवहार हुअा है। जिसका अर्थ है-संसार के चार गति रूप किनारे हैं। संसार परिभ्रमण के जो मूल कारण हैं, उन मूल कारणों का त्याग करना / मिथ्यात्व, अवत, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग का परित्याग करना ही संसारव्युत्सर्ग है। __ प्रष्ट प्रकार के कर्मों को नष्ट करने के लिये जो कायोत्सर्ग किया जाता है, उसे कर्मव्युत्सर्ग कहते हैं। कायोत्सर्ग के जो विविध प्रकार बताये गये हैं, उनमें शारीरिक दृष्टि से और विचार की दृष्टि से भेद किये गये हैं। प्रयोजन की दृष्टि से कायोत्सर्ग के दो भेद किये गये हैं—चेष्टाकायोत्सर्ग और अभिभवकायोत्सर्ग / चेष्टाकायोत्सर्ग दोषविशुद्धि के लिये किया जाता है। जब श्रमण शौच, भिक्षा आदि कार्यों के लिये बाहर जाता है तथा निद्रा आदि में प्रवृत्ति होती है, उसमें दोष लगने पर उसकी शुद्धि के लिये प्रस्तुत कायोत्सर्ग किया जाता है। अभिभवकायोत्सर्ग दो स्थितियों में किया जाता है—प्रथम दीर्घकाल तक अात्मचिन्तन के लिए 86. तत्र शरीरनिस्पृहः, स्थाणु रिवोलकायः प्रलंबितभुजः प्रशस्त ध्यानपरिणतोऽनुन्नमिता नतकायः परीषहानपसर्माश्च सहमान: तिष्ठनिर्जन्तुके कर्मापायाभिलाषी विविक्ते देशे। -मूलाराधना 2-113, विजयोदया पृ. 278-279 57. उब्विहे संसारे पण्णत्ते, तं जहादब्वसंसारे, खेत्तसंसारे, कालसंसारे, भाव संसारे / -स्थानांग 4, 12, 61 88. जे गुणे से आवट्टे / -आचारांग 11115 89. सो उस्सग्गो दुविहो चिट्ठए अभिभवे य नायव्यो / भिक्खायरियाइ पढमो उवसग्गभिजुजणे बिइप्रो॥ -प्रावश्यकनियुक्ति, गाथा 1452 [ 42 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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