________________ 2. उत्थित-निविष्ट-कुछ साधक साधना की दृष्टि से आँख मूंदकर खड़े हो जाते हैं। वे शारीरिक दृष्टि से तो खड़े दिखाई देते हैं किन्तु मानसिक दृष्टि से उनमें कुछ भी जागति नहीं होती। उनका मन संसार के विविध पदार्थों में उलझा रहता है। आर्त और रौद्र ध्यान की धारा में वह अवगाहन करता रहता है / तन से खड़े होने पर भी उनका मन बैठा है। अतः उत्थित होकर भी वह साधक निविष्ट हैं। 3. उपविष्ट-उत्थित-कभी-कभी शारीरिक अस्वस्थता अथवा वृद्धावस्था के कारण कायोत्सर्ग के लिये साधक खड़ा नहीं हो सकता। वह शारीरिक सुविधा की दृष्टि से पद्मासन आदि सुखासन से बैठकर कायोत्सर्ग करता है। तन की दृष्टि से वह बैठा हुआ है किन्तु मन में तीव्र, शुभ-शुद्धभाव धारा प्रवाहित हो रही होती है, जिसके कारण बैठने पर भी वह मन से उत्थित है / शरीर भले ही बैठा है किन्तु साधक का मन उत्थित है। 4. उपविष्ट-निविष्ट-कोई साधक शारीरिक दृष्टि से समर्थ होने पर भी पालस्य के कारण खड़ा नहीं होता / बैठे-बैठे ही बह कायोत्सर्ग करता है। तन की दृष्टि से वह बैठा हुआ है और भाव की दृष्टि से भी उसमें जागृति नहीं है। उसका मन सांसारिक विषय-वासना में या रागद्वेष में फंसा हुया है। उसका तन और मन दोनों ही बैठे हुए हैं / कायोत्सर्ग के इन चार प्रकारों में प्रथम और तृतीय प्रकार का कायोत्सर्ग ही सही कायोत्सर्ग है। इन कायोत्सर्गों के द्वारा ही साधक साधना के महान् लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है / शारीरिक अवस्थिति और मानसिक चिन्तनधारा की दृष्टि से आचार्य भद्रबाह ने आवश्यकनियुक्ति८४ . में कायोत्सर्ग के नौ प्रकार बताये हैंशारीरिक स्थिति मानसिक विचारधारा 1. उत्सृत-उत्सृत खड़ा धर्म-शुक्लध्यान 2. उत्सृत खड़ा न धर्म-शुक्ल, न प्रार्द्र-रौद्र किन्तु चिन्तनशून्य दशा 3. उत्सृत-निषण्ण आर्त-रौद्र ध्यान 4. निषण्ण-उत्सत बैठा धर्म-शुक्ल ध्यान 5. निषण्ण न धर्म-शुक्लध्यान, न प्रार्त-रौद्र किन्तु चिन्तनशून्य दशा 6. निषण्ण-निषण्ण बैठा प्रार्त-रौद्रध्यान 7. निषण्ण-उत्सृत धर्म-शुक्लध्यान 8. निषण्ण लेटा न धर्म-शुक्ल, न आत-रौद्र किन्तु चिन्तनशून्य दशा 9. निषण्ण-निषण्ण लेटा प्रात-रौद्रध्यान कायोत्सर्ग खड़े होकर, बैठ कर और लेट कर तीनों अवस्थानों में किया जा सकता है। खड़ी मुद्रा में कायोत्सर्ग करने की रीति इस प्रकार है-दोनों हाथों को घुटनों की ओर लटका लें, पैरों को सम रेखा में रखें, एडियां मिली हों और दोनों पैरों के पंजों में चार अंगुल' का अन्तर हो / बैठी मुद्रा में कायोत्सर्ग करने वाला पद्मासन या सुखासन से बैठे। हाथों को या तो घुटनों पर रखे या बायीं हथेली पर दायीं हथेली रख कर उन्हें अंक में रखे / लेटी हुई मुद्रा में कायोत्सर्ग करने वाला सिर से लेकर पैर तक के अवयवों को पहले ताने फिर स्थिर करे / हाथ-पैर को सटाये हुए न रखे। इन सभी में अंगों का स्थिर और शिथिल होना आवश्यक है।६५ खड़ा बैठा लेटा 54. अावश्यकनियुक्ति, गाथा 1459-60 85. योगशास्त्र 3, पत्र 250 [ 41 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org