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________________ समान नहीं होती। कुछ साधक विशिष्ट हो सकते हैं, वे कष्टों से घबराते नहीं, शेर की तरह साहसपूर्वक आगे बढ़ते हैं। पर कुछ दुर्बल साधक भी होते हैं, उनके लिये प्रावश्यकसूत्र में प्रागारों का निर्देश है / कायोत्सर्ग में खाँसी, छींक, डकार, मूर्छा प्रभति विविध शारीरिक व्याधियाँ हो सकती हैं। कभी शरीर में प्रकम्पन प्रादि भी हो सकता है / तो भी कायोत्सर्ग भंग नहीं होता। किसी समय साधक कायोत्सर्ग में खड़ा है, उस समय मकान की दीवार या छत गिरने की भी स्थिति पैदा हो सकती है। मकान में या जहाँ वह खड़ा है वहाँ पर अग्निकांड भी हो सकता है। तस्कर और राजा आदि के भी उपसर्ग हो सकते हैं। उस समय कायोत्सर्ग से निवृत्त होकर साधक सुरक्षित स्थान पर भी जा सकता है। उसका कायोत्सर्ग भंग नहीं होगा, क्योंकि कायोत्सर्ग का मूल उद्देश्य समाधि है। यदि समाधि भंग होती है तो पात और रौद्र ध्यान में परिणत होती है। यह परिणति कायोत्सर्ग को भंग कर देती है। जिस कायोत्सर्ग में समाधि की अभिवृद्धि होती हो, वह कायोत्सर्ग ही हितावह है। किन्तु जिस कार्य को करने से असमाधि की वद्धि होती हो, प्रात और रौद्र ध्यान बढते हों, वह कायोत्सर्ग के नाम पर किया गया कायक्लेश है / प्राचार्य भद्रबाहु ने तो यहाँ तक कहा है कि एक साधक कायोत्सर्ग-मुद्रा में लीन है और यदि किसी दूसरे साधक को सांप आदि ने डस लिया तो ऐसी स्थिति में वह साधक उसी समय कायोत्सर्ग छोड़ कर दंशित साधक की सहायता करे। उस समय कायोत्सर्ग की अपेक्षा सहयोग देना ही श्रेयस्कर है। कायोत्सर्म का अर्थ केवल इतना ही नहीं है कि शारीरिक चंचलता का त्याग कर वृक्ष की भांति या पर्वत की तरह या सूखे काष्ठ की तरह साधक निस्पंद खड़ा हो जाये। शरीर से सम्बन्धित निस्पन्दता तो एकेन्द्रिय आदि प्राणियों में भी हो सकती है। पर्वत पर चाहे जितने भी प्रहार करो, वह कब चंचल होता है ? वह किसी पर रोष भी नहीं करता। उसमें जो स्थैर्य है, वह अविकसित प्राणी का स्थैर्य है किन्तु कायोत्सर्ग में होने वाला स्थैर्य भिन्न प्रकार का है। प्राचार्य जिनदासगणी महत्तर ने कायोत्सर्ग के दो प्रकार बताये हैं-१. द्रव्यकायोत्सर्ग और भावकायोत्सर्ग / 82 द्रव्यकायोत्सर्ग में पहले शरीर का निरोध किया जाता है। शारीरिक चंचलता और ममता का परित्याग कर जिन-मुद्रा में स्थिर होना, कायचेष्टा का निरुन्धन करना, यह कायकायोत्सर्ग है। इसे द्रव्यकायोत्सर्ग भी कहते हैं। इसके पश्चात् साधक धर्मध्यान और शुक्लध्यान में रमण करता है। मन को पवित्र विचार और संकल्प से बांधता है, जिससे उसको किसी भी प्रकार की शारीरिक वेदना का अनुभव नहीं होता। वह तन में रहकर भी तन से अलग-थलग प्रात्मभाव में रहता है। यही भावकायोत्सर्ग का भाव है। इस प्रकार का कायोत्सर्ग ही सभी प्रकार के दुःखों को नष्ट करने वाला है / 83 द्रव्य और भाव के भेद को समझने के लिये प्राचार्यों ने कायोत्सर्ग के चार प्रकार बतलाये हैं१. उत्थित-उत्थित 2. उत्थित-निविष्ट 3. उपविष्ट-उत्थित 4. उपविष्ट-निविष्ट / 1. उत्थित-उत्थित---इस कायोत्सर्ग-मुद्रा में अब साधक खड़ा होता है तो उसके साथ ही उसके अन्तर्मानस में चेतना भी खड़ी हो जाती है। वह अशुभ ध्यान का परित्याग कर प्रशस्त ध्यान में लीन हो जाता है। वह प्रथम श्रेणी का साधक है। उसका तन भी उस्थित है और मन भी / वह द्रव्य और भाव दोनों ही दष्टियों से उत्थित है। 82. सो पुण काउस्सग्गो दब्बतो भावतो य भवति / दब्बतो कायचेट्टा निरोहो, भावतो काउस्सग्गो झाणं / / 83. काउस्सगं तनो कुज्जा सव्वदुक्यविमोक्खणो। -आवश्यकचणि ---उत्तराध्ययन 26-42 [40] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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