________________ चाहे अनुकल स्थिति हो, चाहे प्रतिकल स्थिति हो, चाहे सम्मान मिलता हो, चाहे तिरस्कार प्राप्त होता हो, चाहे सिद्धि के संदर्शन होते हो, चाहे प्रसिद्धि प्राप्त हो, तो भी उसका अन्तर्मानस उन सभी स्थितियों में सम रहता है। कृष्ण ने अर्जुन से कहा-जो सुख-दुःख में समभाव रखता है, जो इन्द्रियों के विषय-सुख में प्राकुल-व्याकुल नहीं होता, वही मोक्ष/अमृतत्व का अधिकारी है।४७ गीता के अठारहवें अध्याय में श्रीकृष्ण ने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कहा--जो समत्व भाव में स्थित होता है, वही मेरी परम भक्ति को प्राप्त कर सकता है।४८ इस प्रकार गीता में समत्वयोग का स्वर यत्र-तत्र मुखरित हुअा है। आज विश्व में समत्वयोग के प्रभाव में विषमता की काली घटाएँ मंडरा रही हैं। जिससे व्यक्ति, समाज और राष्ट्र परेशान हैं / समत्वयोग जीवन के विविध पक्षों में इस प्रकार समन्वय स्थापित करता है जिससे न केवल व्यक्तिगत जीवन का संघर्ष समाप्त होता है, अपितु सामाजिक जीवन के संघर्ष भी नष्ट हो जाते हैं, यदि समाज और राष्ट्र के सभी सदस्यगण उसके लिये प्रयत्नशील हों। समत्वयोग से वैचारिक दुराग्रह समाप्त हो जाता है और स्नेह की सुर-सरिता प्रवाहित होने लगती है। जीवन के सभी संघर्ष समाप्त हो जाते हैं। वैचारिक जगत् के संघर्ष का मूल कारण आग्रह-दुराग्रह है। दुराग्रह के विष से मुक्त होने पर मनुष्य सत्य को सहज रूप से स्वीकार कर लेता है। समत्वयोगी साधक न वैचारिक दृष्टि से संकुचित होता है और न उसमें भोगासक्ति ही होती है / इसलिये उसका प्राचार निर्मल होता है और विचार उदात्त होते हैं। वह 'जीमो और जीने दो' के सिद्धान्त में विश्वास रखता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि समत्वयोग के द्वारा गीताकार ने समभाव की साधना पर बल दिया है। सामायिक आवश्यक में न राग अपना राग आलापता है और न द्वष अपनी जादूई बीन बजाता है। वीतराग और वितृष्ण बनने के लिये यह उपक्रम है / यह वह कीमिया है जो भेदविज्ञान की अंगुली पकड़कर समता की सुनहरी धरती पर साधक को स्थित करता है / यह साधना जीवन को सजाने और संवारने की साधना है। चतुर्विशतिस्तव षडावश्यक में दूसरा आवश्यक चतुर्विशतिस्तव है। हमने पूर्व पंक्तियों में देखा कि सामायिक में सावध योग से निवृत्त रहने का विधान किया गया है / सावध योग से निवृत्त रहकर साधक किसी न किसी पालम्बन का प्राश्रय अवश्य ग्रहण करता है, जिससे वह समभाव में स्थिर रह सके। एतदर्थ ही सामायिक में साधक तीर्थकर देवों की स्तुति करता है। चतुर्विंशतिस्तव भक्ति-साहित्य की एक विशिष्ट रचना है। उसमें भक्ति की भागीरथी प्रवाहित हो रही है। यदि साधक उस भागीरथी में अवगाहन करे तो आनन्द-विभोर हए विना नहीं रह सकता। तीर्थंकर त्याग और वैराग्य की दृष्टि से, संयमसाधना की दृष्टि से महान हैं। उनके गुणों का उत्कीर्तन करने से साधक के अन्तहृदय में प्राध्यात्मिक बल का संचार होता है। यदि किसी कारणवश श्रद्धा शिथिल हो जाये तो उसमें अभिनव स्फति का संचार होता है। उसके नेत्रों के सामने त्याग-वैराग्य की ज्वलन्त प्रतिकृति प्राती है, जिससे उसका अहंकार बर्फ की तरह पिघल जाता है। 47. गीता 115 48. गीता 18154 [26] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org