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________________ रहित हो जाती है। जब तक चित्तवृत्तियाँ राग-द्वेष से मुक्त नहीं बनती तब तक समाधि के संदर्शन नहीं होते। संयुत्तनिकाय: 6 में तथागत बुद्ध ने कहा-जिन व्यक्तियों ने धर्मों को सही रूप से जान लिया है, जो किसी मत, पक्ष या वाद में उलझे हुए नहीं हैं, वे सम्बुद्ध हैं, समदृष्टा हैं और विषम स्थितियों में भी उनका आचरण सम रहता है। संयुत्तनिकाय 37 में अन्य स्थान पर बुद्ध ने स्पष्ट कहा-पार्यों का मार्ग सम है / आर्य विषम स्थिति में भी सम का आचरण करते हैं। मज्झिमनिकाय3८ में राग-द्वेष, मोह के उपशमन को ही परम आर्य उपशमन माना है। सुत्तनिपात में कहा गया है-जिस प्रकार मैं हूँ, वैसे ही संसार के सभी प्राणी हैं। अतः सभी प्राणियों को अपने सदृश समझकर आचरण करना चाहिये / बौद्धदर्शन में माध्यस्थ वृत्ति पर जो बल दिया है, उसका मूल आधार भी समभाव ही है। इस प्रकार बीद्धधर्म में यत्र-तत्र समत्व के उल्लेख प्राप्त हैं। इससे यह स्पष्ट है कि बौद्धधर्म में भी समभाव को साधना का एक आवश्यक अंग माना है। यह सत्य है कि उन्होंने सामायिक का निरूपण नहीं किया, पर सामायिक का जो मूल सभमाव है, उसका उल्लेख जरूर किया है। वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में भी समत्वयोग की चर्चा यत्र-तत्र हई है। श्रीमदभगवद गीता वैदिक परम्परा का एक प्रतिनिधि ग्रन्थ है। उसमें योग की चर्चा करते हुए समत्व को ही योग कहा है।४० ज्ञान, कर्म, भक्ति, ध्यान आदि का उद्देश्य समत्व है। विना समत्व के ज्ञान, अज्ञान है। जिसमें समत्व भाव है वही वस्तुतः यथार्थ ज्ञानी है।४१ विना समता के कर्म अकर्म नहीं बनता, समत्व के अभाव में कर्म का बन्धकत्व बना रहेगा। समत्व के अभाव में भक्त भी सच्चा भक्त नहीं है। समत्व में वह अपूर्व शक्ति है जिससे अज्ञान ज्ञान के रूप में परिवर्तित हो जाता है और वह ज्ञान योग के रूप में जाना जाता है। गीताकार की दृष्टि से स्वयं परमात्मा ब्रह्म सम है / 43 जो व्यक्ति समत्व में अवस्थित रहता है, वह परमात्मभाव में ही अवस्थित है।४४ नवम अध्याय में श्रीकृष्ण ने वीर अर्जुन को कहा--हे अर्जुन ! मैं सभी प्राणियों में सम के रूप में स्थित है।४५ गीताकार की दृष्टि से समत्व का क्या अर्थ है ? इस प्रश्न पर चिन्तन करते हुए प्राचार्य शंकर ने लिखा है-समत्व का अर्थ तुल्यता है, प्रात्मवत् दृष्टि है। जिस प्रकार सुख मुझे प्रिय है, दुःख अप्रिय है, वैसे ही विश्व के सभी प्राणियों को सुख प्रिय / अनुकूल है, दुःख प्रतिकूल अप्रिय है / इस प्रकार जो विश्व के प्राणियों में अपने ही सदृश सुख और दुःख को अनुकल और प्रतिकूल रूप में देखता है, वह किसी के प्रति भी प्रतिकुल आचरण नहीं करता / वही समदर्शी है। सभी प्राणियों के प्रति प्रात्मवत् दृष्टि रखना समत्व है।४६ समत्व योगी साधक 36. संयुत्तनिकाय श११८ 37. संयुत्त निकाय शरा६ 38. मज्झिमनिकाय 3 / 4012 39. सुत्तनिपात 3 / 3717 40. श्रीमद्भगवद्गीता 2 / 48 41. श्रीमद्भगवद्गीता 5 / 18 42. श्रीमद्भगवद्गीता 4 / 22 43. (क) श्रीमद्भगवद्गीता 5119 (ख) गीता (शांकर भाष्य) 5118 44. श्रीमद्भगवद्गीता 5 / 19 45. श्रीमद् गवद्गीता 9 / 19 46. श्रीमद्भगवद्गीता, शांकर भाष्य 6 / 32 | 25 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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