________________ आचार्य भद्रबाहु ने सामायिक के तीन भेद बताए हैं--१. सम्यक्त्वसामायिक 2. श्रुतसामायिक और 3. चारित्रसामायिक / 32 समभाव की साधना के लिये सम्यक्त्व और श्रत ये दोनों या सम्यक्त्व के श्रुत निर्मल नहीं होता और न चारित्र ही निर्मल होता है। सर्वप्रथम दृढ निष्ठा होने से विश्वास की . शुद्धि होती है। सम्यक्त्व में अंधविश्वास नहीं होता / वहाँ भेदविज्ञान होता है / श्रत से विचारों की शुद्धि होती है / जब विश्वास और विचार शुद्ध होता है, तब चारित्र शुद्ध होता है। सामायिक एक आध्यात्मिक साधना है, इसलिये इसमें जाति-पांति का प्रश्न नहीं उठता / हरिकेशी मुनि33 जाति से अन्त्यज थे, पर सामायिक की साधना से वे देवों द्वारा भी अर्चनीय बन गये / अर्जुन मालाकार, जो एक दिन क्रूर हत्यारा था, सामायिक साधना के प्रभाव से उसने मुक्ति को वरण कर लिया / जैन साहित्य में सामायिक का महत्त्व प्रतिपादन करने हेतु पूनिया श्रावक की एक घटना प्राप्त होती हैसम्राट श्रेणिक की जिज्ञासा पर भगवान महावीर ने बताया कि तुम मरकर प्रथम नरक में उत्पन्न होनोगे, तुमने इसी प्रकार के कर्मों का अनुबन्धन किया है। सम्राट् श्रेणिक ने नरक से बचने का उपाय पूछा। भगवान ने चार उपाय बताये / उन उपायों में एक उपाय पूनिया धावक की सामायिक को खरीदना था / जब श्रेणिक सामायिक खरीदने के लिये पहुंचा तो पूनिया श्रावक ने श्रेणिक से कहा, "एक सामायिक का मूल्य कितना है ? यह अाप भगवान महावीर से पूछ लीजिये / " राजा श्रेणिक के प्रश्न के उत्तर में भगवान महावीर ने कहाराजन् ! तुम्हारे पास इतना विराट् वैभव है पर यह सारा धन सामायिक की दलाली के लिये भी पर्याप्त नहीं है। सामायिक का मूल्य तो उससे भी कहीं अधिक है। सार यह है कि सामायिक एक अमूल्य साधना है / आध्यात्मिक साधना की तुलना भौतिक वैभव से नहीं की जा सकती। आध्यात्मिक निधि के सामने भौतिक सम्पदाएं तुच्छ ही नहीं, नगण्य हैं। तुलना : बौद्ध और वैदिक परम्परा से सामायिक जैन साधना की विशुद्ध साधनापद्धति है। इस साधनापद्धति की तुलना आंशिक रूप से अन्य धर्मों की साधनापद्धति से की जा सकती है। बौद्धधर्म श्रमणसंस्कृति की ही एक धारा है। उस धारा में साधना के लिये अष्टांगिक मार्ग का निरूपण है।३५ अष्टांगिक मार्ग में सभी के आगे सम्यक् शब्द का प्रयोग हमा है जैसे-सम्यग्दृष्टि, सम्यक्-संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक्-कर्मान्त, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक् समाधि / बौद्ध साहित्य के मनीषियों का यह अभिमत है कि यहां जो सम्यक् शब्द का प्रयोग हुअा है, वह सम के अर्थ में है, क्योंकि पाली भाषा में जो सम्मा शब्द है, उसके सम और सम्यक् दोनों रूप बनते हैं। यहाँ पर जो सम्यक् शब्द का प्रयोग हुआ है, वह राग-द्वेष की वत्तियों को न्यून करने के अर्थ में व्यवहृत हुया है। जब राग-द्वेष की मात्रा कम होती है, तभी साधक समत्वयोग की ओर अपने कदम बढ़ा सकता है। अष्टांगिक मार्ग में अन्तिम मार्ग का नाम सम्यक समाधि है। समाधि में चित्तवत्ति राग-द्वेष से 32. सामाइयं च तिविहं, सम्मत्तं सूयं तहा चरित्तं च / दुविहं चेव चरितं, अगारमणगारियं चेव // --आवश्यकनियुक्ति, 797 33. उत्तराध्ययन, हरिकेशी अध्ययन, 12 34. अन्तकृतदशांग, 6 वर्ग, तृतीय अध्ययन 35. (क) दीघनिकाय-महासतिपट्ठान-सुत्त (ख) संयुत्तनिकाय 5, पृ. 8-10 [ 24] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org