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________________ वियोग, लाभ-अलाभ-ये सभी कर्मोदयजन्य विकार हैं। मेरा इनके साथ वस्तुतः कोई सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार विचार करके शुद्ध, बुद्ध, मुक्त आत्मतत्त्व को प्राप्त करना ही भाव-सामायिक है। प्राचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार में कहा है-परद्रव्यों से निवृत्त होकर जब साधक की ज्ञानचेतना आत्मस्वरूप में प्रवृत्त होती है, तभी भाव-सामायिक होती है। राग-द्वेष से रहित मध्यस्थ भावापन्न आत्मा सम कहलाता है। उस सम में गमन करना भाव-सामायिक है। प्राचार्य जिनदासमणी महत्तर ने भाव-सामायिक पर विस्तार से चिन्तन किया है। उन्होंने गुणनिष्पन्न भाव-सामायिक को एक विराट नगर की उपमा दी है। जैसे एक विराट नगर जन, धन, धान्य आदि से समृद्ध होता है, विविध वनों और उपवनों से अलंकृत होता है, वैसे ही भाव-सामायिक करने वाले साधक का जीवन सदगुणों से समलंकृत होता है। उसके जीवन में विविध सद्गुणों की जगमगाहट होती है, शान्ति का साम्राज्य होता है। प्राचार्य जिनदासगणी महत्तर ने सामायिक आवश्यक को श्राद्यमंगल30 माना है। जितने भी विश्व में दव्यमंगल हैं, वे सभी ट्रध्यमंगल अमंगल के रूप में परिवर्तित हो सकते हैं, पर सामायिक ऐसा भावमंगल है जो कभी भी अमंगल नहीं हो सकता / समभाव की साधना सभी मंगलों का मूल केन्द्र है। अनन्त काल से इस विराट विश्व में परिभ्रमण करने वाला आत्मा यदि एक बार भी भाव-सामायिक ग्रहण कर ले तो वह सात-पाठ भव से अधिक संसार में परिभ्रमण नहीं करता। सामायिक ऐसा पारसमणि है, जिसके संस्पर्श से अनन्तकाल की मिथ्यात्व आदि की कालिमा से प्रारमा मुक्त हो जाता है। सामायिक के द्रव्य-सामायिक और भाव-सामायिक ये दो मुख्य भेद हैं। सामायिक ग्रहण करने के पूर्व जो विधि-विधान किये जाते हैं, जैसे सामायिक के लिये प्रासन बिछाना, रजोहरण, मुखवस्त्रिका प्रादि धार्मिक उपकरण एकत्रित कर एक स्थान पर अबस्थित होना, यह द्रव्य-सामायिक है / द्रव्य-सामायिक में प्रासन, वस्त्र, रजोहरण, मुखवस्त्रिका, माला प्रादि वस्तुएं स्वच्छ और सादगीपूर्ण होनी चाहिये; वे रंग-बिरंगे न होकर श्वेत होने चाहिये / श्वेत रंग शुक्ल और शुभ ध्यान का प्रतीक है / आधुनिक विज्ञान ने भी श्वेत रंग को शान्ति का प्रतीक माना है। सामायिक में न गन्दे और वीभत्स धर्मोपकरण रखने चाहिये और न चमचमाती हुई विलासितापूर्ण वस्तुएँ हो। भाव-सामायिक वह है जिसमें साधक पात्म-भाव में स्थिर रहता है। सामायिक में द्रव्य और भाव दोनों की आवश्यकता है। भावशून्य द्रव्य केवल मुद्रा लगी हुई मिट्टी है, वह स्वर्ण मुद्रा की तरह बाजार में मूल्य प्राप्त नहीं कर सकती। केवल बालकों का मनोरंजन ही कर सकती है। द्रव्य शून्य भाव केवल स्वर्ण है, जिस पर मुद्रा उटुंकित नहीं है। वह स्वर्ण के रूप में तो मूल्य प्राप्त कर सकता है किन्तु मुद्रा के रूप में नहीं / द्रव्ययुक्त भाव स्वर्ण-मुद्रा है। वह अपना मूल्य रखती है और अबाध गति से सर्वत्र चलती है / इसीलिये भावयुक्त द्रव्य-सामायिक का भी महत्त्व है। सामायिक के पात्र-भेद से दो भेद होते है-१. गृहस्थ की सामायिक और 2. श्रमण की सामायिक / 3. गहस्थ की सामायिक परम्परानुसार एक मुहर्त यानी 48 मिनट की होती है, अधिक समय के लिये भी वह अपनी स्थिति के अनुसार सामायिक व्रत कर सकता है / श्रमण की सामायिक यावज्जीवन के लिये होती है। 30. आदिमंगलं सामाइयज्झयणं ।..."सव्वमंगलनिहाणं निव्वाणं पाविहित्ति काऊण सामाइयज्झयणं मंगलं भवति / आवश्यकचूणि 31. प्रावश्यकनियुक्ति, गाथा 796 [23] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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