________________ स्मरण रखिये, संसार में जो शुभतर परमाणु हैं उनसे तीर्थंकर का शरीर निर्मित होता है, इसलिये रूप की दृष्टि से तीर्थंकर महान हैं। संसार में जितने भी प्राणी हैं, उन प्राणियों में तीर्थंकर सबसे अधिक बली हैं। उनके बल के सामने बड़े-बड़े वीर भी टिक नहीं पाते। तीर्थंकर अवधिज्ञान के साथ जन्म लेते हैं / श्रमण-दीक्षा अंगीकार करते ही उन्हें मनःपर्यवज्ञान प्राप्त हो जाता है और उसके पश्चात् उनमें केवलज्ञान का दिव्य पालोक जगमगाने लगता है, अतः ज्ञान की दृष्टि से तीर्थंकर महान हैं / दर्शन की दृष्टि से तीर्थकर क्षायिक सम्यक्त्व के धारक होते हैं। उनका चारित्र उत्तरोतर विकसित होता है। उनके परिणाम सदा बर्द्धमान रहते हैं। ज्ञान, दर्शन और चारित्र के साथ ही दान में उनकी क्षमता कोई भी नहीं कर सकता। वे श्रमणधर्म में प्रविष्ट होने के पूर्व एक वर्ष तक प्रतिदिन एक करोड़, आठ लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान देते हैं। वे गुप्त ब्रह्मचारी होते हैं। साधना काल में देवांगनाएँ भी अपने अद्भुत रूप से उनको प्राषित नहीं कर पातीं। तय के क्षेत्र में भी तीर्थंकर कीर्तिमान संस्थापित करते हैं। वे तप-काल में जल भी ग्रहण नहीं करते। भावना के क्षेत्र में भी तीर्थंकरों की भावना उत्तरोत्तर निर्मल और निर्मलतम होती जाती है। इस प्रकार तीर्थंकरों का जीवन विविध विशेषताओं का पावन प्रतिष्ठान है। एक काल में एक स्थान पर अनेक अरिहन्त हो सकते हैं, पर तीर्थंकर एक ही होता है। प्रत्येक साधक प्रयत्न करने पर अरिहन्त बन सकता है, किन्तु तीर्थकर बनने के लिये एक नहीं अनेक भवों की साधना अपेक्षित है। तीर्थकरत्व उत्कृष्ट पुण्य प्रकृति है। तीर्थंकरों के गुणों का उत्कीर्तन करने से हृदय पवित्र होता है, वासनाएँ शान्त होती हैं / जैसे तीव्र ज्वर के समय बर्फ की ठंडी पट्टी लगाने से ज्वर शान्त हो जाता है, उसी प्रकार जब जीवन में वासना का ज्वर बेचनी पैदा करता हो, उस समय तीर्थंकरों का स्मरण बर्फ की पट्टी की तरह शान्ति प्रदान करता है / तीर्थंकरों की स्तुति से संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं। जैसे एक नन्ही सी चिनगारी रुई के ढेर को भस्म कर देती है वैसे ही तीर्थंकरों की स्तुति से कर्म नष्ट हो जाते हैं। जब हम तीर्थंकरों की स्तुति करते हैं तो प्रत्येक तीर्थंकर का एक उज्ज्वल प्रादर्श हमारे सामने रहता है / भगवान् ऋषभदेव का स्मरण आते ही पादियुग का चित्र मानस-पटल पर चमकने लगता है। वह सोचने लगता है कि भगवान ने इस मानव-संस्कृति का निर्माण किया। राज्यव्यवस्था का संचालन किया / मनुष्य को कला, सभ्यता और धर्म का पाठ पढ़ाया। राजसी वैभव को छोड़कर वे श्रमण बने / एक वर्ष तक भिक्षा न मिलने पर भी चेहरे पर वही पाह्लाद अठखेलियाँ करता रहा / भगवान् शान्तिनाथ का जीवन शान्ति का महान् प्रतीक है / भगवती मल्ली का जीवन नारी-जीवन का एक ज्वलन्त प्रादर्श है। भगवान् अरिष्टनेमि करुणा के साक्षात् अवतार हैं। पशु-पक्षियों की प्राण-रक्षा के लिये वे सर्वांगसुन्दरी राजीमती का भी परित्याग कर देते हैं। भगवान् पार्श्व का स्मरण आते ही उस युग की तप-परम्परा का एक रूप सामने आता है, जिसमें ज्ञान की ज्योति नहीं है, अन्तर्मानस में कषायों की ज्वालाएँ धधक रही हैं तो बाहर भी पंचाग्नि की ज्वालाएं सुलग रही हैं / वे उन ज्वालामों में से जलते हुए नाग को बचाते हैं / कमठ के द्वारा भयंकर यातना देने पर भी उनके मन में रोष पैदा नहीं हुआ और धरणेन्द्र पद्मावती के द्वारा स्तुति करने पर भी मन में प्रसन्नता नहीं हुई / यह है उनका वीतरागी रूप / भगवान् महावीर का जीवन महान् क्रान्तिकारी जीवन है। अनेक लोमहर्षक उपसगों से भी वे तनिक मात्र भी विचलित नहीं होते / पार्यों और अनार्यों के द्वारा, देवों और दानवों के द्वारा, पशुपक्षियों के द्वारा दिये गये उपसगों में वे मेरु की तरह अविचल रहते हैं। जाति-पांति का खण्डन कर वे गुणों की महत्ता पर बल देते हैं। नारी-जाति को प्रतिष्ठा प्रदान करते हैं / [27] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org