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________________ षष्ठाध्ययन: प्रत्याख्यान [113 3. पूर्वार्ध-सत्र उग्गए सूरे, पुरिमड्ढं पच्चक्खामि; चउम्विहं पि प्राहारं असणं, पाणं, खाइम, साइमं / अन्नत्थाणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं, विसामोहेणं, साहुवयणेणं, महत्तरागारेणं, सम्बसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि। भावार्थ---सूर्योदय से लेकर दिन के पूर्वार्ध तक अर्थात् दो प्रहर तक चारों प्रकार के आहार-अशन, पान, खादिम, स्वादिम का प्रत्याख्यान करता हूँ। अनाभोग, सहसाकार, प्रच्छन्मकाल, दिशामोह, साधुवचन, महत्तराकार और सर्वसमाधिप्रत्ययाकार, इन सात आगारों के सिवाय पूर्णतया आहार का त्याग करता हूँ। विवेचन यह पूर्वार्ध-प्रत्याख्यान का सूत्र है। इसमें सूर्योदय से लेकर दिन के पूर्व भाग तक अर्थात् दो प्रहर दिन चढ़े तक चारों तरह के आहार का त्याग किया जाता है। प्रस्तुत प्रत्याख्यान में सात प्रागार माने गए हैं। छह तो पूर्वोक्त पौरुषी के ही आगार हैं, सातवां आगार महत्तराकार है / ‘महत्तराकार' में 'महत्तर' शब्द का अर्थ दो प्रकार से किया गया है महत्तर अर्थात् अपेक्षाकृत महान् पुरुष प्राचार्य, उपाध्याय आदि गच्छ या संघ के प्रमुख तथा अपेक्षाकृत महान् निर्जरा वाला कोई प्रयोजन या कार्य, तदनुसार अर्थ है कि महान्-अपेक्षाकृत अधिक निर्जरा को ध्यान में रखकर रोगी आदि को सेवा के लिए या श्रमण-संघ के किसी अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए निश्चित समय से पहले ही प्रत्याख्यान पार लेना / यहाँ महत्तर का अर्थ है-महान् निर्जरा-साधक प्रयोजन / यथा प्राचार्य सिद्धसेन ने लिखा है 'महत्तरं--प्रत्याख्यानपालनवशाल्लभ्यनिर्जरापेक्षया बृहत्तरनिर्जरालाभहेतुभूतं, पुरुषान्तरेण साधयितुमशक्यं ग्लानचैत्यसंधादि-प्रयोजनं, तदेव प्राकार:--प्रत्याख्यानापवादो महत्तराकारः।' . अर्थात्-प्रत्याख्यान के पालन से जितनी निर्जरा होती है, उससे भी महान् निर्जरा का कारण एवं किसी अन्य परुष से जो न हो सकता हो. ऐसा कोई रुग्णमनि की सेवा सेवा या संघ संबंधी कोई प्रयोजन उपस्थित हो जाना महत्तराकार है। ऐसी स्थिति में यदि समय से पूर्व आहार ग्रहण कर लिया जाए तो व्रतभंग नहीं होता। इस अर्थ के अनुसार प्राचार्यादि के आदेश के विना भी व्रतधारी अपने विवेक से ही इस आगार का सेवन कर सकता है। किन्तु प्राचार्य नमि प्रतिक्रमण-सूत्र वृत्ति में लिखते हैं "अतिशयेन महान् महत्तर प्राचार्यादिस्तस्य वचनेन मर्यादया करणं महत्तराकारो, यथा केनापि साधुना भक्तं प्रत्याख्यातं, ततश्च कुल-गण-संघादि-प्रयोजनमनन्यसाध्यमुत्पन्न, तत्र चासौ महत्तरेराचार्याय नियुक्तः, ततश्च यदि शक्नोति तथैव कर्तुं तदा करोति / अथ न, तदा महत्तरकादेशेन भुञानस्य न भंग इति / " ___ तात्पर्य यह है---जो बहुत महान् हों, वे प्राचार्यादि महत्तर कहलाते हैं। उनके आदेश से मर्यादापूर्वक जो किया जाए वह महत्तरागार कहलाता है / यथा-किसी साधु ने आहार का त्याग किया। उसके पश्चात् कुल, गण या संध आदि का कोई कार्य आ पड़ा और वह कार्य भी ऐसा कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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