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________________ 112] [आवश्यकसून 2. पौरुषी-सूत्र _ उग्गए सूरे पोरिसिं पच्चक्खामि; चउन्विहं पि आहारं असणं, पाणं, खाइम, साइमं / अन्नत्थऽणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं, दिसामोहेणं, साहवयणेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरामि। भावार्थ-~-पौरुषी का प्रत्याख्यान करता हूँ। सूर्योदय से लेकर प्रशन, पान, खादिम और स्वादिम चारों ही प्रकार के आहार का एक प्रहर दिन चढ़े तक त्याग करता हूँ। ___ इस व्रत के आगार छह हैं -- (1) अनाभोग, (2) सहसाकार, (3) प्रच्छन्नकाल, (4) दिशामोह, (5) साधुवचन, (6) सर्वसमाधिप्रत्ययाकार / इन छह प्राकारों के सिवाय पूर्णतया चारों प्रकार के आहार का त्याग करता हूँ। विवेचन–सूर्योदय से लेकर एक प्रहर दिन चढ़े तक चारों प्रकार के प्राहार का त्याग करना, पौरुषी-प्रत्याख्यान है। पौरुषी का शाब्दिक अर्थ है-'पुरुष-प्रमाण छाया।' एक प्रहर दिन चढ़ने पर मनुष्य की छाया घटते-घटते अपने शरीर प्रमाण लम्बी रह जाती है / इसी भाव को लेकर 'पौरुषी' शब्द प्रहरपरिमित कालविशेष के अर्थ में लक्षणा वृत्ति के द्वारा रूढ़ हो गया है। पौरुषी के छह प्रागार इस प्रकार हैं(१) अनाभोग-प्रत्याख्यान की विस्मृति-उपयोगशून्यता हो जाने से भोजन कर लेना। (2) सहसाकार---अकस्मात् जल आदि का मुख में चले जाना। (3) प्रच्छन्नकाल-बादल अथवा आंधी आदि के कारण सूर्य के ढक जाने से पौरुषी पूर्ण हो जाने की भ्रान्ति से प्रहार कर लेना। (4) दिशामोह-पूर्व को पश्चिम समझ कर पौरुषो न आने पर भी सूर्य के ऊंचा चढ़ पाने को भ्रान्ति से अशनादि सेवन कर लेना / (5) साधुवचन--'पौरुषी आ गई इस प्रकार किसी प्राप्त पुरुष के कहने पर विना पौरुषी आए ही पौरुषी का पारण कर लेना। (6) सर्वसमाधिप्रत्ययाकार--किसी प्राकस्मिक शूल आदि तीव्र रोग की उपशांति के लिए औषधि आदि ग्रहण करना / प्रच्छन्नकाल, दिशामोह और साधुवचन, उक्त तीनों प्रागारों का अभिप्राय यह है कि भ्रांति के कारण पौरुषी पूर्ण न होने पर भी पूर्ण समझकर भोजन कर ले तो व्रत भंग नहीं होता है। यदि भोजन करते समय यह मालूम हो जाए कि अभी पौरुषी पूर्ण नहीं हुई है तो उसी समय भोजन करना छोड़ देना चाहिए। पौरुषी के समान ही सार्धपौरुषी-प्रत्याख्यान, भी होता है। इसमें डेढ़ प्रहर दिन चढ़े तक आहार का त्याग करना होता है। अतः जब उक्त सार्धपौरुषो का प्रत्याख्यान करना हो तब 'पोरिसि' के स्थान पर 'सड्ढपोरिसि' पाठ बोलना चाहिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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