________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण] सकता है, इसी प्रकार माया से मूढ़ बना व्यक्ति अधर्म और धर्म की पहचान भी नहीं कर सकता। अतः साधक को चाहिये कि वह अपने पूर्वकृत पापों की वर्तमान में आलोचना और प्रायश्चित्त के द्वारा शुद्धि कर ले / स्वस्थ शरीर में यदि फोड़ा हो जाय तो नस्तर के द्वारा डाक्टर आपरेशन करके उसका मवाद निकाल सकता है। बिना प्रापरेशन के यदि मल्हम पट्टी कर दी जाएगी तो मवाद पूरे शरीर में भी फैल सकता है। ___ अड्ढाइज्जेसु दीवसमुद्देसु...-प्रस्तुत पाठ के अन्त में अढ़ाई द्वीप, पन्द्रह कर्मभूमियों में विद्यमान समस्त साधुओं को मस्तक नमाकर नमस्कार किया गया है / अभिप्राय यह है जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड द्वीप और अर्ध पुष्करद्वीप तथा अपहरण की अपेक्षा से लवण एवं कालोदधि समुद्र और उनमें भी पन्द्रह क्षेत्र-कर्मभूमियां ही श्रमणधर्म की साधना का क्षेत्र हैं। आगे के क्षेत्रों में न मानव हैं और न श्रमणधर्म की साधना है। अतः अढ़ाई द्वीप के मानवक्षेत्र में जो भी साधु, साध्वी रजोहरण, पूजनी और प्रतिग्रह अर्थात् पात्र को धारण करने वाले, पांच महाव्रतों के पालक और अठारह हजार शीलाङ्गरथ के धारक तथा अक्षत प्राचारवान् -प्राधाकर्म आदि 42 दोषों को टालकर आहार लेने वाले, 47 दोष टालकर आहार भोगने वाले, अखण्ड आचार का पालने वाले ऐसे स्थविरकल्पी, जिनकल्पी मुनिराजों को शिर से, मन से और मस्तक से वन्दना करता हूँ। शिरसा, मनसा, मस्तकेन-प्रस्तुत सूत्र में 'सिरसा, मणसा मत्थएण वंदामि' पाठ आता है। इसका अर्थ है-शिर से, मन से और मस्तक से वन्दना करता हूँ। प्रश्न हो सकता है कि शिर और मस्तक तो एक ही हैं, फिर इनका पृथक् उल्लेख क्यों किया गया ? इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है--शिर, समस्त शरीर में मुख्य है। अतः शिर से वन्दना करना अर्थात् शरीर से वन्दन करना। मन अन्त:करण है, अत: यह मानसिक वन्दना का द्योतक है। 'मत्थएण बन्दामि' का अर्थ है-मस्तक झुकाकर वन्दना करता हूँ। यह वाचिक वन्दना का रूप है, अतएव मानसिक, वाचिक और कायिक त्रिविध वन्दना का स्वरूप-निर्देश होने से पुनरुक्ति दोष नहीं है। जैनधर्म के अनुसार अहंकार नीचगोत्र-कर्म के बन्ध का कारण है तथा नम्रता से उच्चगोत्र का बंध होता है। अतः जो साधक नम्र हैं, वृद्धों का आदर करते हैं, सद्गुणी के प्रति पूज्य भाव रखते हैं, वे ही उच्च हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं। जैनधर्म गुणों का पुजारी है। जैनधर्म में विनय एवं नम्रता को तप कहा है / कहा है 'विणओ जिणसासणमूलं,' 'विणयमूलो धम्मो।' विनय जिनशासन का मूल है, विनय धर्म का मूल है / दशवकालिक सूत्र में भी विनय का गुणगान किया गया है। विनयाध्ययन में वृक्ष का रूपक देते हुए कहा है मूलानो खंधप्पभवो दुमस्स, खंधाओ पच्छा समुति साहा। साह-प्पसाहा विरुहंति पत्ता, तओ से पुष्कं च फलं रसोय // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org