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________________ 64] [आवश्यकसूत्र एवं धम्मस्स विणो, मूलं परमो से मोक्खो। जेण कित्ती सुयं सिग्छ, निस्सेसं चाभिगच्छह // -दश. 6 / 2 / 1-2 अर्थात-जिस प्रकार वृक्ष के मूल से स्कन्ध, स्कन्ध से शाखाएँ, शाखाओं से प्रशाखाएँ और फिर क्रम से पत्र, पुष्प, फल एवं रस उत्पन्न होते हैं, इसी प्रकार धर्मवृक्ष का मूल विनय है और उसका अन्तिम फल एवं रस मोक्ष है। विणको सासणे मूलं, विणीनो संजो भवे / विणयाउ विप्पमुक्कस्स, को धम्मो कओ तवो॥ -आवश्यकचूणि / जिनशासन का मूल विनय है / विनीत साधक ही सच्चा संयमी हो सकता है। जो विनय से हीन है, उसका कैसा धर्म और कैसा तप ! शिष्य का अहंकार व उद्दण्डता एवं अनुशासनहीनता गुरु के मन को खिन्न कर देती है। उत्तराध्ययन सूत्र में बताया है रमए पंडिए सासं, हयं भह व वाहए। बालं सम्मइ सासंतो, गलियस्सं व बाहए। अर्थात्-जैसे उत्तम घोड़े का शिक्षक प्रसन्न होता है, वैसे ही विनीत शिष्यों को ज्ञान देने में गुरु प्रसन्न होते हैं / किन्तु दुष्ट घोड़े का शिक्षक और अविनीत शिष्य के गुरु खेदखिन्न होते हैं। नम्रता मानव-जीवन का सुन्दर आभूषण है। इससे मनुष्य के गुण सौरभपूर्ण हो जाते हैं / विनम्रता जीवन का महान् गुण है / प्रस्तुत सूत्र में अखण्ड आचार-चारित्र को पालने वाले मुनिराजों को साधक शिर से, मन से और मस्तक से वन्दन करता है, अथवा 'वन्दन करता हूँ ऐसी प्रतिज्ञा करता है। अठारह हजार शीलांग-शास्त्रकारों ने अठारह हजार शील-अंगों की व्याख्या इस प्रकार की है जोगे करणे सण्णा, इंदिय भोम्माइ समणधम्मे य / अण्णोण्णेहि अब्भत्था, अट्ठारह सीलसहस्साइं॥ अर्थात्-तीन योग, तीन करण, चार संज्ञाएँ, पांच इन्द्रियां, दस प्रकार के पृथ्वीकाय आदि जीव और दस श्रमणधर्म-इन सबका परस्पर गुणाकार करने से शील के 18 हजार भेद होते हैं। 'शील' का अर्थ है 'प्राचार' / भेदानुभेद की दृष्टि से प्राचार के अठारह हजार प्रकार होते हैं। दसविध श्रमणधर्म--क्षमा, निर्लोभता, सरलता, मृदुता, लाघव, सत्य, संयम, तप, त्याग एवं ब्रह्मचर्य / दशविध श्रमणधर्म के धारक मुनि, पृथ्वीकाय आदि पांच स्थावरों एवं द्वीन्द्रिय आदि चार बसों और एक अजीव-इस प्रकार दश का प्रारंभ नहीं करते हैं। अठारह हजार शीलाङ्ग रथ इस प्रकार हैं-१. पृथ्वीकाय प्रारंभ, 2. अप्काय प्रारंभ, 3. तेजस्काय प्रारंभ, 4. वायुकाय आरंभ, 5. वनस्पतिकाय आरंभ, 6. द्वीन्द्रिय प्रारंभ, 7. त्रीन्द्रिय आरंभ, 8. चतुरिन्द्रिय प्रारंभ, 9. पंचेन्द्रिय प्रारंभ, 10. अजीव आरंभ। ये दस भेद क्षान्ति के हुए, इसी प्रकार मुक्ति, प्रार्जव, यावत् ब्रह्मचर्य के ये सव श्रोत्रेन्द्रिय के साथ 100 भेद हुए, इसी प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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