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________________ 82] [आवश्यकसूत्र का प्रतिज्ञा रूप प्रत्याख्यान के द्वारा परित्याग करने वाला / यह विशेष साधक की त्रैकालिक जीवनशुद्धि का प्रतीक है। साधना का अर्थ है-पाप कर्मों पर त्रिकाल विजयी होना। कहा भी है'पडिहतं-अतीतणिदणं-गरहणादीहिं, पच्चवखातं सेसं प्रकरणतया पावकम्म पावाचारं येण स तथा / -प्राचार्य जिनदास / अनिदान-निदान का अर्थ है-निश्चय रूप से यथेष्ट प्राप्ति की आकांक्षा। अनिदान का अर्थ है अनासक्त भाव से किया जाने वाला तप आदि अनुष्ठान / जैसे किसी व्यापारी ने लाख रुपये का सामान खरीदना चाहा, यदि उसके पास में लाख रुपये से अधिक या लाख रुपये हैं तब तो वह मनचाहा लाख रुपये का माल खरीद सकेगा। किन्तु उसके पास लाख से कम हैं तो वह लाख रुपये का माल नहीं खरीद सकेगा / इसी प्रकार यदि साधक के पास पुण्य कर्म का आधिक्य है तो निदान करने पर उसे यथेष्ट ऋद्धि प्राप्त हो सकती है अन्यथा नहीं। लेकिन वह ऋद्धि निदान करने से उसी जन्म में परिसमाप्त हो जाती है। निदान के परिणामस्वरूप आगे अधोगति में उस आत्मा को उत्पन्न होना पड़ता है। आगमकारों के कथनानुसार वासुदेवों और प्रतिवासुदेवों को निदान से ही त्रिखण्ड के साम्राज्य आदि की ऋद्धि उपलब्ध होती है। तत्पश्चात उनका अधोगमन ही होता है। इसीलिए लोकोत्तर प्राप्त पुरुषों का साधकों के लिए निर्देश है कि वह निदान रहित तप करे और यह प्रतिज्ञा करे कि मुझे संसार के लुभावने भोगों में कोई प्रासक्ति नहीं है, मेरी साधना केवल प्रात्मशुद्धि के लिए है, मेरा ध्येय बंधन नहीं, मुक्ति है। ऐसे दृढ संकल्प को लेकर साधक अपनी साधना के द्वारा साध्य की उपलब्धि कर सकता है / दृष्टिसम्पन्न-दृष्टिसंपन्न का अर्थ है सम्यग्दर्शन रूप विशुद्ध दृष्टि से सम्पन्न / मोक्षाभिलाषी साधक के लिए शुद्ध दृष्टि का होना अनिवार्य है। क्योंकि सम्यग्दर्शन के अभाव में साधक को हिताहित का सच्चा विवेक नहीं हो सकता तथा धर्माधर्म, आत्मा-अनात्मा का भेदविज्ञान भी नहीं हो सकता। सम्यग्दृष्टि साधक ही दस प्रकार के मिथ्यावादों से बच सकता है / सत्य और तथ्य का अन्वेषण शुद्ध दष्टिसम्पन्न साधक ही कर सकता है। सम्यग्दर्शन वस्तुतः सब गुणों का मूल है 'दिट्ठिसम्पन्नो'–अर्थात् 'सव्वगुण-मूलभूतगुणयुक्तत्वम् / ' -आचार्य जिनदास / सम्यग्दृष्टि अात्मा संसार में रहकर भी सब कुछ यथावत् देख सकता है, मिथ्यादृष्टि नहीं / जैसे निर्मल काच की पेटी में बन्द होते हुए भी व्यक्ति बाहर के दृश्यमान पदार्थों को देख सकता है, किन्तु लोहे की पेटी में बन्द व्यक्ति नहीं देख सकता / कोई तैराक, तैरने की कला जिसको याद हो, गहरे पानी में तल तक पहुंच कर टनों पानी उसके सिर पर होने पर भी डूब नहीं सकता, किन्तु जो तैरने की कला से अनभिज्ञ है, थोड़े से पानी में भी डूब सकता है। जैनदर्शन में साधना अविरतसम्यग्दृष्टि नामक चौथे गुणस्थान से ही प्रारंभ होती है / ___ माया-मषाविजित-माया-मृषा से रहित / माया-मृषा अठारह महापापों में सत्तरहवां महापाप है। तीन शल्य में प्रथम शल्य है। जैसे पैर में शूल गहरा उतर जाता है और दिखाई तो नहीं देता, किन्तु पथिक के कदम शूल की चुभन के कारण पथ पर बढ़ नहीं सकते, इसी प्रकार मायावी अर्थात् अपने दोषों को छिपाने वाले साधक का एक कदम भी अपनी साध्य की सिद्धि के लिए साधना पथ पर नहीं बढ़ सकता है। अंधेरे में जैसे सांप और रस्सी को नहीं पहचाना जा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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