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________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण] [81 की वास्तविक प्रगति धन बढ़ा लेने में, प्रसिद्धि प्राप्त करने में, भौतिक ज्ञान प्राप्त करके विद्वान् कहलाने में अथवा नेता बन जाने में नहीं है, अपितु आत्मिक गुणों की वद्धि करने में है। पात्मिक गुणों की वृद्धि के लिए अपनी भूलों का अथवा दोषों का अवलोकन करते रहना आवश्यक है। साधक जब तक छद्मस्थ है, घातिकर्मोदय से युक्त है, तब तक जीवन में दोषों का होना स्वाभाविक है / वह भूल या दोष जानकारी में हो सकता है अथवा अनजान में भी, अर्थात् असंयम अथवा दोष की स्मृति रहती है और कभी नहीं भी रहती है। साधक उन सबका प्रतिक्रमण करता है / इस प्रकार ज्ञानपूर्वक प्रतिक्रमण करने से साधक की प्रगति होती है। __'जं संभरामि' आदि से लेकर 'जं च न पडिक्कमामि' तक के सूत्रांश का सम्बन्ध 'तस्स सव्वस्स देवसियस्स अइयारस्स पडिक्कमामि' से है। प्रस्तुत सूत्र का भाव यह है कि जिनका स्मरण करता हूँ अथवा जिनका स्मरण नहीं करता हूँ, जिनका प्रतिक्रमण करता हूँ, जिनका प्रतिक्रमण नहीं करता हूँ, उन सब देवसिक अतिचारों का प्रतिक्रमण करता हूँ। शंका-जिनका प्रतिक्रमण करता हूँ फिर भी उनका प्रतिक्रमण करता हूँ-इसका अर्थ क्या है ? प्रतिक्रमण का भी प्रतिक्रमण करना कुछ संगत प्रतीत नहीं होता? ___ आचार्य जिनदास ने उपर्युक्त शंका का सुन्दर समाधान किया है / वे—'पडिक्कमामि', का अर्थ 'परिहरामि' करते हैं "संघयणादि-दौर्बल्यादिना जं पडिक्कमामि-परिहरामि करणिज्ज, जं च न पडिक्कमामि अकरणिज्ज। -आवश्यकणि अर्थात शारीरिक दुर्बलता आदि किसी विशेष परिस्थितिवश यदि मैंने करने योग्य सत्कार्य छोड़ दिया हो- अर्थात् न किया हो, और न करने योग्य कार्य किया हो तो उस सब अतिचार का प्रतिक्रमण करता हूँ। समणोऽहं संजय-विरय पडिहय... इस सूत्रांश का अर्थ है-''मैं श्रमण हूँ, संयम-विरतप्रतिहत--प्रत्याख्यात पापकर्मा हूँ, अनिदान हूँ, दृष्टिसम्पन्न हूँ और मायामृषाविवजित हूँ।" 'श्रमण' शब्द 'श्रम्' धातु से बना है। इसका अर्थ है श्रम करना। प्राचार्य हरिभद्र दशवकालिक सूत्र के प्रथम अध्ययन की तीसरी गाथा का मोद्घाटन करते हुए श्रमण का अर्थ तपस्वी करते हैं / जो अपने ही श्रम से तपः-साधना से मुक्ति-लाभ करते हैं वे श्रमण कहलाते हैं। संयत का अर्थ है-'संयम में सम्यक् यतन करने वाला।' अहिंसा, सत्य आदि कर्तव्यों में साधक को सदैव सम्यक् प्रयत्न करते रहना चाहिये / 'संजतो सम्म जतो, करणीयेषु जोगेषु सम्यक्प्रयत्नपर इत्यर्थः। -आवश्यकणि विरत का अर्थ है-सब प्रकार के सावद्य योगों से विरति--निवृत्ति करने वाला, अर्थात् पहले किये हुए पापों की निन्दा और भविष्य काल के लिए संवर करके सकल पापों से रहित होना। प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा अर्थात् भूतकाल में किए गए पापकर्मों की निन्दा एवं गर्दा के द्वारा प्रतिहत (विनष्ट) करने वाला और वर्तमान तथा भविष्य में होने वाले पाप कर्मों को नहीं करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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