SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 8.] [आवश्यकसूत्र ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से ज्ञान प्राप्त होता है और मिथ्यात्व का उदय उसे मिथ्या बना देता है। यही मिथ्या ज्ञान यहाँ अज्ञान कहा गया है। सम्यग्दर्शन-सहचर ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है / उसे यहां ज्ञान शब्द से कहा गया है। __ अकिरिया-किरिया-प्रक्रिया अर्थात् नास्तिवाद को जानता तथा त्यागता हूँ। प्राचार्य हरिभद्र प्रक्रिया को अज्ञान का ही विशेष भेद मानते हैं और क्रिया को ज्ञान का भेद कहते हैं- "प्रक्रिया नास्तिकवादः क्रिया सम्यग्वादः / " लोक-परलोक, धर्म-अधर्म आदि पर विश्वास न रखना नास्तिकवाद है / इसके विपरीत लोक-परलोक, धर्म-अधर्म आदि पर विश्वास रखना आस्तिकवाद है / __ आचार्य जिनदास के अनुसार--"अप्पसत्था किरिया अकिरिया, इतरा किरिया इति / " अर्यात् अयोग्य क्रिया को प्रक्रिया एवं प्रशस्त-योग्य क्रिया को क्रिया कहते हैं / मिच्छत्त-सम्मत्त-पाप के अठारह प्रकार हैं। उनमें अन्तिम अठारहवां पाप मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व ही एक ऐसा पाप है जो समस्त पापों का पोषक, रक्षक एवं वर्धक है / इसी का फल है कि जीव को अनादि काल से जन्म-मरणादि समस्त दुःखों को सहन करना पड़ा है / जब तक मिथ्यात्व है, तब तक सभी पाप सुरक्षित हैं। मिथ्यात्व, संसार-चक्र में फंसाये रखने वाला है और सम्यक्त्व, मोक्ष का परम सुख प्रदान कर आत्मा को परमात्मा बनाने वाला है। मिथ्यात्व मारक है और सम्यक्त्व तारक है, रक्षक है / इस प्रकार साधक मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्व का स्वरूप समझकर मिथ्यात्व का त्याग करता है और सम्यक्त्व को स्वीकार करता है / अबोहि-बोहि-"प्रबोधिः-मिथ्यात्वकार्य, बोधिस्तु सम्यक्त्वस्येति / " -आचार्य हरिभद्र। अबोधि मिथ्यात्व का कार्य है और बोधि सम्यक्त्व का कार्य / असत्य का दुराग्रह रखना, संसार के कामभोगों में आसक्ति रखना, धर्म की निंदा करना, वीतराग अरिहंत भगवान् का अवर्णवाद बोलना इत्यादि मिथ्यात्व के कार्य हैं / सत्य का आग्रह रखना, संसार के कामभोगों से उदासीन रहना, धर्म के प्रति दृढ आस्था रखना, प्राणिमात्र पर प्रेम एवं करुणा का भाव रखना इत्यादि सम्यक्त्व के कार्य हैं। प्रबोधि को जानकर अर्थात् समझकर त्यागना एवं बोधि को स्वीकार करना। अमग्ग-मग्ग–अमार्ग-हिंसा आदि अमार्ग-कुमार्ग को जानता तथा त्यागता हूँ और अहिंसा आदि मार्ग सन्मार्ग-मोक्षमार्ग को स्वीकार करता हूँ। अथवा जिनमत से विरुद्ध पार्श्वस्थ निह्नव तथा कुतीथिक-सेवित अमार्ग को छोड़कर ज्ञानादि रत्नत्रय रूप मार्ग को स्वीकार करता हूँ। जं संभरामि, जं च न संभरामि जं पडिक्कमामि, जं च न पडिक्कमामि-मानव के मन की अनादिकालीन कामना यही रही है कि वह अपने कदम प्रगति की ओर बढ़ाये। चाहे विद्यार्थी हो अथवा व्यवसायी, चाहे कलाकार हो अथवा कोई अन्य साधक, वह चाहता यही है कि उसका निरन्तर विकास होता रहे और कदम आगे से आगे बढ़ते रहें। किन्तु एक बात विशेष रूप से ध्यान में रखने की है कि मनुष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy