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________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण] हेय-उपादेय-ज्ञेय पदार्थ को स्वरूपतः जानना। प्रत्याख्यान-परिज्ञा का अर्थ है हेय का प्रत्याख्यान करना, छोड़ना / प्रत्याख्यान के भी दो प्रकार होते हैं-१. सुप्रत्याख्यान एवं 2. दुष्प्रत्याख्यान / प्रत्याख्यान का स्वरूप तथा जिसका प्रत्याख्यान किया जाता है उन पदार्थों का स्वरूप जानकर प्रत्याख्यान करना सुप्रत्याख्यान है। इसके विपरीत प्रत्याख्यान अर्थात् स्वरूप जानेसमझे बिना किया जाने वाला प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है। __ असंयम, प्राणातिपात आदि, अब्रह्मचर्य-मैथुनवृत्ति, अकल्प-प्रकृत्य, अज्ञान-मिथ्याज्ञान, अक्रिया-असत्क्रिया, मिथ्यात्व आदि आत्मविरोधी प्रतिकल आचरण को त्याग कर संयम, ब्रह्मचर्य, कृत्य, सम्यग्ज्ञान आदि को स्वीकार करते हुए यह आवश्यक है कि पहले असंयम आदि का स्वरूप ज्ञात कर लिया जाय / जब तक यह पता नहीं चलेगा कि असंयम आदि क्या है, उनका स्वरूप क्या है, उनके होने से क्या हानि है तथा उन्हें त्यागने से साधक को क्या लाभ है, तब तक उन्हें त्यागा कसे जाएगा? अतः प्रत्याख्यान-परिज्ञा से पहले ज्ञ-परिज्ञा अत्यन्त आवश्यक है। अज्ञानी साधक की कठोर से कठोर क्रियाएँ एवं उग्र से उग्र बाह्य साधना भी संसार-परिभ्रमण का ही कारण होती है। प्रस्तुत पाठ में 'प्रसंजमं परियाणामि, संजमं उवसंपज्जामि' इत्यादि पाठ में जो 'परियाणामि' क्रिया है उसका अर्थ न केवल जानना है और न केवल छोड़ना, अपितु सम्मिलित अर्थ है 'जानकर छोड़ना।' प्राचार्य जिनदास भी कहते हैं"परियाणामित्ति ज्ञ-परिणया जाणामि, पच्चक्खाण-परिष्णया पच्चक्खामि / " अकल्प-कप्प-कल्प का अर्थ है आचार। अत: चरण-करण रूप आचार-व्यवहार को आगम की भाषा में कल्प कहा जाता है। इसके विपरीत अकल्प होता है / साधक प्रतिज्ञा करता है कि मैं अकल्प-अकृत्य को जानता तथा त्यागता हूँ और कल्प-कृत्य को स्वीकार करता हूँ।' प्राचार्य जिनदास ने सामान्यत: कहे हुए एक-विध असंयम के ही विशेष विवक्षा भेद से दो भेद किये हैं—'मूलगुण-असंयम और उत्तरगुण-असंयम / ' और फिर अब्रह्म शब्द से मूलगुण-असंयम का तथा अकल्प शब्द से उत्तरगुण-असंयम का ग्रहण किया है। आचार्यश्री के कथनानुसार प्रतिज्ञा का रूप इस प्रकार होता है---"मैं मूलगुण-असंयम का विवेकपूर्वक परित्याग करता हूँ और मूलगुण संयम को स्वीकार करता हूँ।" अन्नाण-नाण-अज्ञान का अर्थ यहाँ ज्ञानावरणकर्म के उदय से होने वाला ज्ञान का अभाव नहीं अपितु मिथ्याज्ञान समझना चाहिये / ज्ञान का अभाव अर्थ लिया जाए तो उसके त्यागने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता / जो है ही नहीं, उसका त्याग कैसा! 1. "अकल्पोऽकृत्यमाख्यायते कल्पस्तु कृत्यमिति / " -आचार्य हरिभद्र 2. “सो य असंजमो विसेसतो दुविहो-मूलगुण-असंजमो उत्तरगुणअसंजमो य। अतो सामष्णेण भणिऊण संबेगाद्यर्थ विसेसतो चेव भणति प्रबंभं प्रबंभग्गहणेण मूलगुणा भण्णंति ति एवं प्रकापगहणेण उत्तरगुणत्ति / " अावश्यकचणि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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