________________ [आवश्यकसूत्र सामायिक आदि प्रत्याख्यान पर्यन्त द्वादशाङ्ग गणिपिटक स्वरूप तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट प्रवचन सत्य है। सच्चं--सत्य आत्मा का स्वभाव, अनुभूति का विषय और आचरण का आदर्श है / जैसे मिश्री की मधुरता का अनुभव, प्रास्वादन उसे मुह में रखने से ही हो सकता है, उसी प्रकार सत्य का महत्त्व उसे आचरण में उतारने से ही मालूम होता है / सत्य का उपासक जीवन के हर क्षेत्र में हर समय सत्य को साथ रखता है। सत्य एक सार्वभौम सिद्धान्त है। सत्य को धर्म से अलग नहीं किया जा सकता है। सत्य से नीति सुशोभित होती है। जीवन और व्यवहार में सत्य की झलक आने पर मनुष्य का जीवन अपने आप धर्ममय हो जाता है। धर्म और नीति ग्रन्थों में सर्वत्र सत्य की महिमा का मुक्तकंठ से बखान किया गया है / सत्य सर्वोत्तम है, सर्वोत्कृष्ट है / सत्य के बिना धर्म की कल्पना नहीं की जा सकती। 'नाऽसौधों यत्र न सत्यमस्ति' अर्थात वह धर्म, धर्म नहीं है जो सत्य से दर है। सत्य साधना का सार, मनुष्य की तत्त्व-चिंतना का तार और मोक्ष मंजिल का द्वार है / संसार का सम्पूर्ण सार तत्त्व इसमें निहित है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में सत्य को भगवान् का रूप कहा गया है। जीवन का आधार है, सत्य सुखों की खान / प्रश्नव्याकरण देखिये, सत्य स्वयं भगवान् / केवलियं-मूल में 'केवलियं' शब्द है, इसके संस्कृत रूपान्तर दो किए जा सकते हैं केवल और कैवलिक / केवल का अर्थ अद्वितीय है / सम्यग्दर्शनादि तत्त्व अद्वितीय हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं / कैवलिक का अर्थ है केवलज्ञानियों द्वारा प्ररूपित अर्थात् प्रतिपादित / पडिपुण्णं-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही जैनधर्म है। वह अपने आप में सब ओर से प्रतिपूर्ण है। नेयाउयं-'नेयाउयं' का संस्कृत रूप नैयायिक होता है / प्राचार्य हरिभद्र नैयायिक का अर्थ करते हैं जो नयनशील है, ले जाने वाला है, वह नैयायिक है / सम्यग्दर्शन आदि मोक्ष में ले जाने वाले हैं, अत: वे नैयायिक कहलाते हैं / 'नयनशीलं नैयायिक मोक्ष-गमकमित्यर्थः / ' श्रीभावविजयजी न्याय का अर्थ 'मोक्ष' करते हैं। क्योंकि निश्चित प्राय-लाभ ही न्याय है और ऐसा न्याय एक मात्र मोक्ष ही है तथा साधक के लिए मोक्ष से बढ़कर अन्य कोई लाभ नहीं है-- "निश्चित प्रायो लाभो न्यायो मुक्तिरित्यर्थः, स प्रयोजनमस्येति नैयायिकः।" ___ --उत्तराध्ययनवृत्ति, अध्य. 4, गा. 5 इसका एक अर्थ युक्ति-तर्क से युक्त-अबाधित भी हो सकता है / 1. "केवलियं-केवलं अद्वितीयं एतदेवकं हितं नान्यद द्वितीयं प्रयचनमस्ति / केवलिणा वा पणतं केवलियं / " —प्राचार्य जिनदास कृत अावश्यकच णि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org