________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण] [73 अनर्वाणं वृषभं मन्द्रजिह्व, बृहस्पति वर्धया नव्यमर्के। --ऋग् मं. 1 सू. 190 मं. 1 अर्थात् मिष्टभाषी, ज्ञानी, स्तुतियोग्य ऋषभ को पूजा-साधक मन्त्रों द्वारा वधित करो। भगवान महावीर इस युग के प्रारंभ में भगवान ऋषभदेव के द्वारा संस्थापित जैनधर्म की गरिमा को मध्यवर्ती वाईस तीर्थंकरों ने तथा चरम तीर्थंकर भगवान् महावीर ने संवर्द्धना प्रदान की। किन्तु उस समय उन्हें धार्मिक एवं सामाजिक दोनों ही क्षेत्रों में अनेकानेक विकट समस्याओं से जूझना पड़ा था। आज से छब्बीस सौ वर्ष से कुछ अधिक वर्ष पूर्व यद्यपि धर्म का दीप प्रज्वलित था, पर देश की दशा अत्यन्त शोचनीय थी। चारों ओर हिंसा का ताण्डवनृत्य हो रहा था तथा शोषण एवं अनाचार की अति से मानवता कराह रही थी। धर्म के नाम पर पशुओं के रक्त की नदियां बहती थीं, शूद्रों पर तथा नारी जाति पर भी भयानक अत्याचार होते थे। उस विकट वेला में जगदुद्धारक वीर प्रभु ने जन्म लिया और अपनी आत्मशक्ति से अहिंसाधर्म की दुन्दुभि बजाई थी। भगवान महावीर का ऋण भारतवर्ष पर अनन्त है, असीम है, हम किसी भी प्रकार से उनका ऋण अदा नहीं कर सकते। वे पूर्ण निष्काम थे, बदले में चाहते भी कुछ नहीं थे। लेकिन उनके अनुयायी अथवा सेवक होने के नाते हमारा कर्तव्य है कि हम उनके बताए हुए सन्मार्ग पर चलें और श्रद्धा एवं भक्ति के साथ मस्तक झुकाकर उनके श्रीचरणों में वन्दन करें। निग्गंथं पावयणं-'पावयणं' विशेष्य है और 'निग्गंथं' विशेषण है / जैन साहित्य में 'निग्गंथ' शब्द प्रसिद्ध है। निग्गंथ का संस्कृत रूप 'निर्ग्रन्थ होता है। निर्ग्रन्थ का अर्थ है-धन-धान्य आदि बाह्य ग्रन्थ और मिथ्यात्व, अविरति तथा क्रोध, मान, माया आदि प्राभ्यन्तर ग्रन्थ अर्थात् परिग्रह से रहित, पूर्ण त्यागी एवं संयमी साधु / निर्ग्रन्थों अरिहन्तों का प्रवचन, नैन्थ्यप्रावचन है।' मूल में जो निग्गंथ शब्द है, वह निर्ग्रन्थ का वाचक न होकर 'नग्रन्थ्य' का वाचक है। 'पावयणं' शब्द के दो संस्कृत रूपान्तर हैं—प्रवचन और प्रावचन / प्राचार्य जिनदास प्रवचन कहते हैं और हरिभद्र प्रावचन / शब्दभेद होते हुए भी अर्थ दोनों प्राचार्य एक ही करते हैं। जिसमें जीवादि पदार्थों का तथा ज्ञानादि रत्नत्रय की साधना का यथार्थ रूप से निरूपण किया गया है, वह सामायिक से लेकर बिन्दुसार पूर्व तक का प्रागम-साहित्य निर्ग्रन्थ प्रवचन या नैर्ग्रन्थ्य प्रावचन में गभित हो जाता है। 'प्रकर्षेण अभिविधिना उच्यन्ते जीवादयो यस्मिन् तत्प्रावचनम् / ' -प्राचार्य हरिभद्र / श्री ऋषभदेव स्वामी से लेकर श्री महावीर स्वामी पर्यन्त चौबीसों तीर्थंकर भगवन्तों को मेरा नमस्कार हो। इस प्रकार नमस्कार करके तीर्थंकरप्रणीत प्रवचन की स्तुति करते हैं-यही निर्ग्रन्थ अर्थात् रजत आदि द्रव्यरूप और मिथ्यात्व आदि भावरूप ग्रन्थ से रहित-मुनि-सम्बन्धी 1. 'निर्ग्रन्थानामिदं न ग्रंध्यं प्रावचनमिति / ' -आचार्य हरिभद्र 2. 'पावयणं सामाइयादि बिन्दुसारपज्जवसाणं जत्थ नाण-दसण-चरित्तसाहणवावारा अणे गधा वणिज्जति।' -प्राचार्य जिनभद्र, आवश्यकणि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org