________________ 72] [आवश्यकसूत्र अक्रिया-नास्तिकवाद को जानता तथा त्यागता हूँ, क्रिया-सम्यग्वाद को स्वीकार करता हूँ। मिथ्यात्व को जानता और त्यागता हूँ, सम्यक्त्व-सदाग्रह को स्वीकार करता हूँ। अबोधि-मिथ्यात्व को जानता एवं त्यागता हूँ, बोधि को स्वीकार करता हूँ। हिंसा आदि अमार्ग को (जपरिज्ञा से) जानता और (प्रत्याख्यानपरिज्ञा से) त्यागता हूँ। अहिंसा आदि मार्ग को स्वीकार करता हूँ। जिन दोषों को स्मरण कर रहा हूँ, जो याद हैं और जो स्मृतिगत नहीं हैं, जिनका प्रतिक्रमण कर चुका हूँ और जिनका प्रतिक्रमण नहीं कर पाया हूँ, उन दिवस सम्बन्धी अतिचारों का प्रतिक्रमण करता हूँ। मैं श्रमण हूँ, संयमी हूँ, विरत-सावध व्यापारों से एवं संसार से निवृत्त हूँ, पापकर्मों को प्रतिहत करने वाला हूँ, निदानशल्य से रहित अर्थात् आसक्ति से रहित हूँ, दृष्टिसम्पन्न-सम्यग्दर्शन से युक्त हूँ, माया सहित मृषावाद-असत्य का परिहार करने वाला है। - ढाई द्वीप और दो समुद्र परिमित मानव-क्षेत्र में अर्थात् पंद्रह कर्मभूमियों में जो भी गच्छक एवं पात्र को धारण करने वाले तथा पांच महाव्रतों, अठारह हजार शीलांगोंसदाचार के अंगों को धारण करने वाले एवं निरतिचार प्राचार के पालक त्यागी साधु मुनिराज हैं, उन सबको शिर नमाकर, मन से, मस्तक से वन्दना करता हूँ। विवेचन--जैनधर्म मुलतः पापों से बचने का आदर्श प्रस्तुत करता है / अतः वह कृत कर्मों के लिए पश्चात्ताप कर लेना ही पर्याप्त नहीं समझता, प्रत्युत भविष्य में पुनः पाप न होने पाएँ, इस बात की भी सावधानी रखने का निर्देश करता है। प्रतिज्ञा करने से पहले संयम-पथ के महान यात्री आदिनाथ श्री ऋषभ से लेकर महावीर पर्यन्त चौवीस तीर्थंकर देवों को नमस्कार किया है / युद्धवीर युद्धवीरों का तो अर्थवीर अर्थवीरों का स्मरण करते हैं / यह धर्मयुद्ध है, अतः यहां धर्मवीरों का ही स्मरण किया गया है / यह अटल नियम रहा है कि जैसी साधना करनी हो उसी साधना के उपासकों एवं उसमें सिद्धि प्राप्त करने वालों का स्मरण किया जाता है। अतः जैनधर्म के चौवीस तीर्थंकरों की स्मृति हमारी आत्म-शुद्धि को स्थिर करने वाली है / तीर्थंकर हमारे लिए अन्धकार में प्रकाशस्तंभ हैं / भगवान् ऋषभदेव-वर्तमान कालचक्र में जो चौबीस तीर्थकर हुए हैं, उनमें भगवान् ऋषभदेव सर्वप्रथम हैं / आपके द्वारा ही मानव-सभ्यता का आविर्भाव हुआ है। प्रापसे पहले मानव जंगलों में रहता, वन फल खाता एवं सामाजिक जीवन से शून्य घूमा करता था। न उसे धर्म का पता था और न कर्म का ही। प्रात्मा का स्वरूपदर्शन सर्वप्रथम भगवान् ऋषभदेव ने ही कराया। / ___ भगवान् ऋषभदेव इस अवसर्पिणीकाल में जैनधर्म के आदि प्रवर्तक हैं / जो लोग जैनधर्म को सर्वथा आधुनिक माने बैठे हैं, उन्हें इस ओर लक्ष्य देना चाहिये / भगवान् ऋषभदेव के गुणगान वेदों और पुराणों तक में गाए गए हैं। वे मानव-संस्कृति के आदि उद्धारक थे, अतः वे मानव मात्र के पूज्य रहे हैं / प्राचीन वैदिक ऋषि उनके महान् उपकारों को नहीं भूले थे, उन्होंने खुले हृदय से भगवान् ऋषभदेव का स्तुति-गान किया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org