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________________ अतुर्य अध्ययन : प्रतिक्रमण] . मिच्छत्तं परियाणामि, सम्मत्तं उपसंपज्जामि। अबोहि परियाणामि, बोहि उपसंपज्जामि / अमग्गं परियाणामि, मग्गं उपसंपज्जामि / जं संभरामि, जंच न संभरामि। जं पडिक्कमामि, जं च न पडिक्कमामि। तस्स सम्बस्स देवसियस्स अइयारस्स पडिक्कमामि। समणोऽहं संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खायपावकम्मे अनियाणो विट्ठिसंपन्नो माया-मोस-विवज्जिओ। अड्डाइजेसु दीव-समुद्देसु पन्नरससु कम्मभूमीसु, जावंति केइ साहू रयहरण-गुच्छ-पडिग्गहधारा, पंचमहव्वय-धारा अट्ठारस्स-सहस्स-सोलंगधारा, अक्खयाकारचरित्ता, ते सव्वे सिरसा मणसा मत्थएणं वंदामि // भावार्थ-भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकर देवों को मैं नमस्कार करता हूँ। यह तीर्थंकरोपदिष्ट निर्ग्रन्थ-प्रवचन ही सत्य है, अनुत्तर–सर्वोत्तम है, कैवलिक-केवलज्ञानियों द्वारा प्ररूपित है, (मोक्षप्रापक गुणों से) परिपूर्ण है, न्याय, युक्ति, तर्क से अबाधित है, पूर्ण रूप से शुद्ध अर्थात् सर्वथा निष्कलंक है, माया आदि शल्यों को नष्ट करने वाला है, सिद्धिमार्ग-सिद्धि की प्राप्ति का उपाय है, कर्म-बन्धन से मुक्ति का साधन है, संसार से छुड़ाकर मोक्ष का मार्ग है, पूर्ण शान्ति रूप निर्वाण का मार्ग है, मिथ्यात्व रहित है, विच्छेदरहित अर्थात् सनातन-नित्य है तथा पूर्वापरविरोध से रहित है, सब दुःखों का पूर्णतया क्षय करने का मार्ग है। __इस निर्ग्रन्थ प्रवचन में स्थित रहने वाले अर्थात् तदनुसार आचरण करने वाले भव्य जीव सिद्ध होते हैं, बुद्ध-सर्वज्ञ होते हैं, मुक्त होते हैं, पूर्ण प्रात्मशान्ति को प्राप्त करते हैं, समस्त दुःखों का सदाकाल के लिए अन्त करते हैं। मैं इस निम्रन्थ प्रवचन रूप धर्म पर श्रद्धा करता हूँ, प्रतीति करता हूँ, रुचि करता हूँ, स्पर्शना करता हूँ, पालना अर्थात् रक्षा करता हूँ। विशेष रूप से निरन्तर पालन करता हूँ। मैं प्रस्तुत जिन-धर्म की श्रद्धा करता हुआ, प्रतीति करता हुआ, रुचि करता हुआ, स्पर्शनाआचरण करता हुअा, पालना करता हुआ, विशेष रूप से निरन्तर पालना करता हुअा उस केवलिप्ररूपित धर्म की आराधना के लिए उद्यत होता हूँ और विराधना से विरतनिवृत्त होता हूँ। असंयम को ज्ञपरिज्ञा से जानता और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्यागता हूँ तथा संयम को स्वीकार करता हूँ। अब्रह्मचर्य को जानता और त्यागता हूँ और ब्रह्मचर्य को स्वीकार करता हूँ। अकल्प्य (अकृत्य) को जानता और त्यागता हूँ, कृत्य को स्वीकार करता हूँ। अज्ञान को जानता और त्यागता हूँ, ज्ञान को स्वीकार करता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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