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________________ লিঙ্ক व्यत्याम्रोडित-वच्चामेलियं का संस्कृत रूप 'व्यत्यादंडित' होता है / इसका अर्थ हैशून्य चित्त से दो तीन बार बोलना / कुछ प्राचार्यों ने व्यत्याम्रोडित का अर्थ भिन्न रूप से भी किया है / यथा भिन्न-भिन्न सूत्रों में तथा स्थानों पर आए हुए एक जैसे समानार्थक पदों को एक साथ मिलाकर बोलना व्यत्यामंडित है। इन शब्दों का अर्थ पूर्व में ज्ञान सम्बन्धी अतिचारों में दिया जा चुका है। 'पडिक्कमामि एवविहे असंजमे' से लेकर 'तेतीसाए प्रासायणाहिं' तक के सूत्र में एकविध असंयम का ही विराट रूप बतलाया गया है / यह सब अतिचार-समूह मूलत: असंयम का ही विवरण है। 'पडिक्कमामि एगविहे असंजमे' यह असंयम का संक्षिप्त-प्रतिक्रमण है और यही प्रतिक्रमण आगे 'दोहि बंधणेहि' आदि से लेकर 'तेतीसाए प्रासायणाहिं' तक क्रमश: विराट् होता गया है। यह लोकालोक प्रमाण अनन्त विराट् संसार है। इसमें अनन्त ही असंयम रूप हिंसा, असत्य आदि हेयस्थान हैं, अनन्त संयम रूप अहिंसा आदि उपादेयस्थान हैं तथा अनन्त पुद्गल आदि ज्ञेयस्थान है / साधक को इन सबका प्रतिक्रमण करना होता है। इस प्रकार अनन्त संयम-स्थानों का आचरण न किया हो और असंयम-स्थानों का आचरण किया हो तो उसका प्रतिक्रमण है / इस प्रकार एक से लेकर तेतीस तक के बोल के समान ही अन्य अनन्त बोल भी अर्थतः संकल्प में रखने चा भले ही वे ज्ञात हों या अज्ञात हों / साधक को केवल ज्ञात का ही प्रतिक्रमण नहीं करना, अपितु अज्ञात का भी प्रतिक्रमण करना है। तभी तो आगे के अन्तिम पाठ में कहा है "ज संभरामि, जं च न संभरामि" / अर्थात् जो दोष स्मृति में आ रहे हैं उनका प्रतिक्रमण करता हूँ और जो दोष इस समय स्मृति में नहीं पा रहे हैं, परन्तु हुए हैं, उन सबका भी प्रतिक्रमण करता हूँ। प्रतिज्ञा-सूत्र निर्ग्रन्थ-प्रवचन का पाठ नमो चउवीसाए तित्थयराणं उसभाइमहावीरपज्जवसाणाणं / इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्चं, अणुत्तरं, केवलियं, पडिपुण्णं, नेयाउयं, संसुद्ध, सल्लगत्तणं, सिद्धिमग्गं, मुत्तिमगं, निज्जाणमग्गं, निव्वाणमग्गं, अवितहमविसंधि, सम्वदुक्खप्पहीणमग्गं / इत्थं ठिआ जीवा सिझंति, बुझंति, मुच्चंति, परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति / तं धम्म सद्दहामि पत्तियामि, रोएमि, फासेमि, पालेमि, अणुपालेमि / तं धम्म सद्दहतो, पत्तिअंतो, रोअंतो, फासंतो, पालतो, अणुपालंतो। तस्स धम्मस्स केवलिपन्नत्तस्स अब्भुढिओमि आराहणाए विरओमि विराहणाए, असंजमं परियाणामि, संजमं उवसंपज्जामि / प्रबंभं परियाणामि, बंभं उवसंपज्जामि। अकप्पं परियाणामि, कप्पं उवसंपज्जामि / अन्नाणं परियाणामि, नाणं उवसंपज्जामि / अकिरियं परियाणामि, किरियं उपसंपज्जामि / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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