________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण की असत्य प्ररूपणा करना, पुनर्जन्म आदि न मानना, नरकादि चार गतियों के सिद्धान्त पर विश्वास न रखना इत्यादि इहलोक और परलोक की आशातना है / प्राण-भूत आदि की आशातना-प्राण-भूत आदि शब्दों को एकार्थक माना गया है। सबका अर्थ जीव है। आचार्य जिनदास कहते हैं-'एगट्टिता व एते। परन्तु प्राचार्य जिनदास महत्तर और प्राचार्य हरिभद्र आदि ने उक्त शब्दों के कुछ विशेष अर्थ भी स्वीकार किए हैं / द्वीन्द्रिय आदि जीवों को प्राण और पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय जीवों को भूत कहा जाता है। समस्त संसारी प्राणियों के लिए जीव और संसारी तथा मुक्त सब अनन्तानन्त जीवों के लिए सत्त्व शब्द का व्यवहार होता है प्राणिनः द्वीन्द्रियादयः। भूतानि पृथ्व्यादयः / जीवन्ति जीवा-आयुःकर्मानुभवयुक्ताः सर्व एव / सत्वाः-सांसारिक-संसारातीतभेदाः।" -आवश्यक-शिष्यहिता टीका विश्व के समस्त अनन्तानन्त जीवों की आशातना का यह सूत्र बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। जैनधर्म की करुणा का अनन्त प्रवाह केवल परिचित और स्नेही जीवों तक ही सीमित नहीं है / अपितु समस्त जीव-राशि से क्षमा मांगने का महान् प्रादर्श है। प्राणी निकट हो या दूर, स्थूल हो या सूक्ष्म, ज्ञात हो या अज्ञात, शत्रु हो या मित्र, किसी भी रूप में हो, उसकी आशातना एवं अवहेलना करना साधक के लिए सर्वथा निषिद्ध है। . केवलिप्ररूपित धर्म की पाशातना-साधक केवली होने से पूर्व ही पूर्ण वीतराग हो जाते हैं। अतएव वीतराग एवं सर्वज्ञ होने के कारण उनके द्वारा प्ररूपित धर्म सर्वहितकारी एवं सत्य ही होता है / फिर भी उनके द्वारा प्ररूपित धर्म का अवर्णवाद करना केवलिप्ररूपितधर्म का अवर्णवाद है। इसी प्रकार देवों, मनुष्यों और असुरों सहित लोक की असत्य प्ररूपणा रूप आशातना से निवृत्त होता हूँ। काल की आशातना—'वर्तनालक्षण काल नहीं है' इस प्रकार की अथवा 'काल ही सब कुछ करता, है जीवों को पचाता है, उनका संहार करता है और संसार के सोये रहने पर भी जागता है, अतः काल दुनिवार है,' इस प्रकार काल को एकान्त कर्ता मानने रूप अाशातना से निवृत्त होता हूँ। भगवान् महावीर के मुख-चन्द्र से निस्सृत, गणधर के कर्गों में पहुँचे हुए, सामान्य-विशेषात्मक पदार्थ के बोधक और भव्य जीवों को अजर-अमर करने वाले वचनामृत स्वरूप श्रुत की असत्य प्ररूपणा आदि पाशातना से निवृत्त होता हूँ। श्रुत-देवता को प्राशातना-श्रुतदेवता का अर्थ है-श्रुत-निर्माता तीर्थंकर तथा गणधर / वे श्रुत के मूल अधिष्ठाता हैं, रचयिता है, अतः श्रुतदेवता हैं। उनकी तथा वाचनाचार्य (उपाध्याय के आदेशानुसार शिष्यों को पाठ रूप में श्रुत का उद्देशादि करते हैं, उन) की अाशातना से निवृत्त होता हूँ। 1. कालः पचति भूतानि, कालः संहरते प्रजाः / काल: सुप्तेषु जाति, कालो हि दुरतिक्रमः / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org