________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण] [75 सल्लकत्तणं-आगम की भाषा में शल्य का अर्थ है-'माया, निदान और मिथ्यात्व' / बाहर के शल्य कुछ काल के लिए ही पीड़ा देते हैं, परन्तु ये अन्दर के शल्य तो बड़े ही भयंकर होते हैं। अनादि काल से अनन्त आत्माएँ इन शल्यों के कारण पीडित हो रही हैं। स्वर्ग में पहुँच कर भी इनसे मुक्ति नहीं मिलती। प्राचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में लिखा है-निःशल्यो व्रती' / व्रती के लिए सर्वप्रथम निःशल्य अर्थात् शल्य-रहित होना परम आवश्यक है। निज्जाणमग्गं-आचार्य हरिभद्र ने निर्याण का अर्थ मोक्षपद किया है। जहां जाया जाता है वह यान होता है / निरुपम यान निर्याण कहलाता है / मोक्ष ही ऐसा पद है जो सर्वश्रेष्ठ यान-स्थान है / अतः वह जैन आगमसाहित्य में निर्याण पदवाच्य भी है। अविसन्धि-अविसन्धि अर्थात सन्धि से रहित / सन्धि बीच के अन्तर को कहते हैं / भाव यह है कि जिनशासन अनादि काल से निरन्तर अव्यवच्छिन्न चला आ रहा है। भरतादि क्षेत्र में किसी कालविशेष में नहीं भी होता है, परन्तु महाविदेह क्षेत्र में तो सदा काल अव्यवच्छिन्न बना रहता है / काल की सीमाएँ जैनधर्म की प्रगति में बाधक नहीं बन सकतीं / जिनधर्म निज-धर्म अर्थात प्रात्मा का धर्म है। अतः बह तीन काल और तीन लोक में कहीं न कहीं सदा सर्वदा मिलेगा ही। सव्व-दुःखपहीणमग्ग-धर्म का अन्तिम विशेषण सर्वदुःखप्रहीणमार्ग है। संसार का प्रत्येक प्राणी दुःख से व्याकुल है, क्लेश से संतप्त है / वह अपने लिए सुख चाहता है, आनन्द चाहता है, परन्तु संसार का कोई भी सुख ऐसा नहीं है, जो दुःख से असंभिन्न हो / क्योंकि व्यक्ति अज्ञान और मोह के वशीभूत होकर बाह्य पदार्थों में सुख ढूँढता है। लेकिन जो पदार्थ आज सुखद और प्रीतिकर प्रतीत होते हैं, कालान्तर में वे ही कष्टप्रद, क्लेशजनक एवं शोक-संताप-वृद्धि के कारण बन जाते हैं / जिस धन की प्राप्ति के लिए व्यक्ति छल, कपट और माया का सेवन करता है, जिसे प्राप्त करने के लिए दिन-रात एक करता है, वही धन प्राणों के नाश का कारण भी बन जाता है। कर, टेक्स आदि की चोरी के कारण कारागृह का मेहमान भी बनाता है / जो पुत्र बचपन में माता-पिता की आंखों का तारा, दिल का टुकड़ा, हृदय का दुलारा होता है, वही बड़ा होने पर दुराचारी बन जाने के कारण हृदय का शूल, आंखों का कांटा, कुल का कलंक बन जाता है / उसका नाम सुनने में भी कष्ट होता है / लज्जा से मस्तक झुक जाता है / अगर पदार्थ में सुख होता तो एक पदार्थ एक समय सुख का और दूसरे समय दुःख का कारण कैसे बन जाता ? सच्चे अर्थ में वह सच्चा सुख नहीं, सुखाभास है / 'संयोगमूला जीवेन प्राप्ता दुःखपरम्परा' सच तो यह कि आत्मभिन्न बाह्य पदार्थों के संयोग के कारण ही जीव अनादि काल से दुःखों को भुगत रहा है। सच्चा सुख तो सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय रूप धर्म की साधना से ही प्राप्त हो सकता है। इसलिए प्राचार्य हरिभद्र लिखते हैंसर्वदुःख-प्रहीणमार्ग-सर्वदुःख-प्रहीणो मोक्षस्तत्कारणमित्यर्थः / सिझति--जैनधर्म में प्रात्मा के अनन्त गुणों का पूर्ण विकास हो जाना ही सिद्धत्व माना गया है। जब तक ज्ञान अनन्त न हो, दर्शन अनन्त न हो, चारित्र अनन्त न हो, वीर्य अनन्त न हो, अर्थात् प्रत्येक गुण अनन्त न हो, तब तक जैनधर्म मोक्ष होना स्वीकार नहीं करता है। 'सिझंति' का अर्थ है-भगवान के बताये हुए मार्ग में स्थित जीव सिद्ध होते हैं / Jain Education International For Private & Personal. Use Only www.jainelibrary.org