________________ [आवस्यकसूत्रे 5. प्रतिदिन सरस भोजन न करना। अपरिग्रह-महाव्रत की पांच भावनाएँ 1.-5. पांचों इन्द्रियों के विषय शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श के इन्द्रिय-गोचर होने पर मनोज्ञ पर राग-भाव तथा अमनोज्ञ पर द्वेष-भाव न लाकर उदासीन भाव रखना। दशाश्रुत आदि सूत्रत्रयों के 26 उद्देशन काल ... दशाश्रुतस्कन्ध के दस, बृहत्कल्प के छह और व्यवहारसूत्र के दस, इन छब्बीस अध्ययनों के पठनकाल में व्यतिक्रम करने से एवं उनके अनुसार आचरण न करने से अतिचार होता है। सत्ताईस अनगार के गुण सत्ताईस अनगार के गुणों का शास्त्रानुसार भलीभांति पालन न करना अतिचार है / उसकी शुद्धि के लिए मुनि-गुणों का प्रतिक्रमण है। 1.-5. अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह रूप पांच महावतों का सम्यक् पालन करना, 6. रात्रिभोजन का त्याग करना, 7.-11. पांचों इन्द्रियों को वश में रखना, 12. भावसत्यअन्तःकरण की शुद्धि, 13. करणसत्य-वस्त्र, पात्र आदि की भली-भांति प्रतिलेखना करना, 14. क्षमा, 15. वीतरागता-वराग्य, 16. मन का शुभ प्रवृत्ति,१७. वचन की शुभ प्रवत्ति, 8. काय की शुभ प्रवृत्ति, 19.--24. छह काय के जीवों की रक्षा, 25. चारित्र से युक्तता, 26. शीत आदि वेदना का सहना और, 27. मारणान्तिक उपसर्ग को भी समभाव से सहना / उपर्युक्त सत्ताईस गुण, प्राचार्य हरिभद्र ने अपनी आवश्यकसूत्र की शिष्यहिता टीका में संग्रहणीकार की एक प्राचीन गाथा के अनुसार वर्णन किए हैं। परन्तु समवायांगसूत्र में मुनि के सताईस गुण कुछ भिन्न रूप से अंकित हैं--पांच महाव्रत, पांच इन्द्रियों का निरोध, चार कषायों का त्याग, भावसत्य, करणसत्य, योगसत्य, क्षमा, विरागता, मनःसमाहरणता, वचनसमाहरणता, कायसमाहरणता, ज्ञानसम्पन्नता, दर्शनसम्पन्नता, चारित्रसम्पन्नता, वेदनातिसहनता, मारणान्तिकातिसहनता। अट्ठाईस आचारप्रकल्प आचारप्रकल्प की व्याख्या के सम्बन्ध में विभिन्न मान्यताएँ हैं / प्राचार्य हरिभद्र के अनुसार प्राचार को ही प्राचार-प्रकल्प कहते हैं-'आचार एव आचारप्रकल्पः।' आचार का अर्थ प्रथम अंगसूत्र है। उसका प्रकल्प अर्थात् अध्ययन-विशेष / निशीथसूत्र आचारप्रकल्प कहलाता है। अथवा ज्ञानादि साधु-प्राचार का प्रकल्प अर्थात् व्यवस्थापन आचारप्रकल्प कहा जाता है। 'आचारः प्रथमाङ्ग तस्य प्रकल्पः अध्ययनविशेषो निशीथमित्यपराभिधानम् / प्राचारस्य वा साध्वाचारस्य ज्ञानादिविषयस्य प्रकल्पो व्यवस्थापनमिति आचारप्रकल्पः।' -अभयदेव-समवायांगसूत्र टीका आचारांगसूत्र के शस्त्रपरिज्ञा आदि 25 अध्ययन हैं और निशीथसूत्र भी प्राचारांगसूत्र की चूलिका स्वरूप माना जाता है, अतः उसके तीन अध्ययन मिलकर आचारांगसूत्र के अट्ठाईस अध्ययन होते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org