________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण] चौवीस देव असुरकुमार आदि दश भवनपति; भूत, यक्ष आदि आठ व्यन्तर; सूर्य, चन्द्र आदि पांच ज्योतिष्क और वैमानिक देव, इस प्रकार कुल चौवीस जाति के देव हैं। संसार में भोग-जीवन के ये सबसे बड़े प्रतिनिधि हैं। इनकी प्रशंसा करना भोगमय जीवन की प्रशंसा करना है और निन्दा करना द्वेष भाव है / अतः मुमुक्षु को तटस्थ भाव ही रखना चाहिये। यदि कभी तटस्थता का भंग किया हो तो अतिचार है / उत्तराध्ययनसूत्र के सुप्रसिद्ध टीकाकार आचार्य शान्तिसूरि यहां देव शब्द से चौवीस तीर्थकर देवों का भी ग्रहण करते हैं। इस अर्थ के मानने पर अतिचार होगा कि---उनके प्रति आदर या श्रद्धाभाव न रखना, उनकी आज्ञानुसार न चलना आदि। पांच महाव्रतों को पच्चीस भावनाएँ ___ महाव्रतों का शुद्ध पालन करने के लिए शास्त्रों में प्रत्येक महाव्रत की पांच-पांच भावनाएँ बतलाई गयी हैं / भावनाओं का स्वरूप बहुत ही हृदयग्राही एवं जीवन-स्पर्शी है। श्रमणधर्म का शुद्ध पालन करने के लिए भावनाओं पर अवश्य ही लक्ष्य देना चाहिये / अहिंसा-महाव्रत की पांच भावनाएँ१. ईर्यासमिति-उपयोगपूर्वक गमनागमन करना / 2. पालोकितपानभोजन-देख-भालकर प्रकाशयुक्त स्थान में आहार करना। 3. आदाननिक्षेपसमिति--विवेकपूर्वक पात्रादि उठाना तथा रखना। 4. मनोगुप्ति-मन का संयम / 5. बचनगुप्ति-वाणी का संयम / सत्य-महाव्रत की पांच भावनाएँ 1. विचार कर बोलना, 2. क्रोध का त्याग, 3. लोभ का त्याग, 4. भय का त्याग, 5. हंसीमजाक का त्याग। अस्तेय-महाव्रत की पांच भावनाएँ --- 1. अठारह प्रकार के शुद्ध स्थान की याचना करके सेवन करना। 2. प्रतिदिन तृण-काष्ठादि का अवग्रह लेना। 3. पीठ-फलक आदि के लिए भी वृक्षादि को नहीं काटना / 4. साधारण पिण्ड का अधिक सेवन नहीं करना / 5. साधु की वैयावृत्य करना। ब्रह्मचर्य-महाव्रत की पांच भावनाएँ-- 1. स्त्री-पशु-नपुंसक के सान्निध्य से रहित स्थान में रहना / 2. स्त्री-कथा का वर्जन करना। 3. स्त्रियों के अंगोपांगों का अवलोकन नहीं करना / 4. पूर्वकृत कामभोग का स्मरण नहीं करना / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org