________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण] [55 पर दृष्टि रखकर निनिमेष नेत्रों से निश्चलतापूर्वक कायोत्सर्ग किया जाता है। देव, मनुष्य एवं तिर्यंच सम्बन्धी उपसर्ग आने पर उन्हें समभाव से सहन किया जाता है। उपसर्ग से चलायमान नहीं होना चाहिये / यदि उपसर्ग से चलायमान हो जाय तो पागल अर्थात् बावला बने या दीर्घकालिक रोग उत्पन्न हो जाय / यदि स्थिर रहे तो अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान तथा केवलज्ञान तक प्राप्त करता है। तेरह क्रियास्थान क्रिया का अर्थ यहाँ कार्य है। इसके तेरह प्रकार निम्नलिखित हैं 1. अर्थ-क्रिया अपने किसी प्रयोजन के लिये जीवों की हिंसा करना, कराना या अनुमोदना करना अर्थ-क्रिया है। 2. अनर्थ-क्रिया-बिना किसी प्रयोजन के किया जाने वाला पाप कर्म अनर्थ-क्रिया कहलाता है। 3. हिंसा-क्रिया–अमुक व्यक्ति मुझे अथवा मेरे स्नेहियों को कष्ट देता है, देगा अथवा उसने दिया है, यह सोचकर किसी प्राणी की हिंसा करना। 4. अकस्मात्-किया-शीघ्रतावश बिना जाने हो जाने वाला पाप अकस्मात्-क्रिया है / 5. दृष्टिविपर्याय-क्रिया–मतिभ्रम से होने वाला पाप यथा-चोरादि के भ्रम में साधारण अनपराधी पुरुष को दण्ड दे देना। 6. मषा-क्रिया-झूठ बोलना। 7. अदत्तादान-क्रिया-चोरी करना / 6. अध्यात्म-क्रिया बाह्य निमित्त के बिना मन में होने वाला शोक आदि / 9. मान-किया--अपनी प्रशंसा करना, घमण्ड करना / 10. मित्र-क्रिया प्रियजनों को कठोर दण्ड देना / 11. माया-क्रिया-दम्भ करना / 12. लोभ-क्रिया-लोभ करना। 13. ईर्यापथिकी-क्रिया-अप्रमत्त विवेकी संयमी को गमनागमन के निमित्त से लगने वाली क्रिया। चौदह भूतनाम सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय, इन सातों के पर्याप्त और अपर्याप्त यों कुल चौदह भेद होते हैं। इनकी विराधना करना, इन्हें किसी भी प्रकार की पीड़ा देना अतिचार है / विवेचन जैनागमों में सूक्ष्म रूप से अहिंसा का पालन करने के लिए एवं हिंसा से बचने के लिए अनेक प्राधारों से जीवों के भेद-प्रभेदों का उल्लेख किया गया हैं, क्योंकि जीव की भलीभांति पहिचान हुए बिना उसकी हिंसा से बचा नहीं सकता / प्रस्तुत में जीवों के चौदह ग्रामों-समूहों का उल्लेख किया गया है, जिनमें समस्त जागतिक जीवों का समावेश हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org