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________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण [53 2. व्रतप्रतिमा-व्रती श्रावक सम्यक्त्व लाभ के पश्चात व्रतों की साधना करता है। पांच अणुव्रत आदि व्रतों की प्रतिज्ञाओं को सम्यक् प्रकार से निभाता है। किन्तु सामायिक का यथासमय सम्यक् पालन नहीं कर पाता / यह प्रतिमा दो मास की होती है। 3. सामायिकप्रतिमा-इस प्रतिमा में सामायिक तथा देशावकाशिक व्रत का पालन करता है, किन्तु पर्व दिनों में पौषधव्रत का सम्यक् पालन नहीं कर पाता। यह तीन मास की होती है। 4. पौषधोपवास प्रतिमा-पूर्वोक्त सभी नियमों के साथ अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या को प्रतिपूर्ण पौषध उपवास सहित करता है / यह प्रतिमा चार मास की है / 5. कायोत्सर्गप्रतिमा उपर्युक्त सभी व्रतों का भली-भांति पालन करते हुए प्रस्तुत प्रतिमा में निम्नोक्त नियमों को विशेष रूप से धारण करना होता है 1. स्नान नहीं करना। 2. रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग करना। 3. धोती की लांग खुली रखना / 4. दिन में ब्रह्मचर्य का पालन करना। 5. रात्रि में मैथन का परिमाण रखना। इस प्रतिमा का पालन जघन्य एक या दो अथवा तीन दिन, उत्कृष्ट पांच महीने तक किया जाता है। इसे नियमप्रतिमा भी कहा जाता है। 6. ब्रह्मचर्यप्रतिमा-ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करना / इस प्रतिमा की कालमर्यादा जघन्य एक रात्रि और उत्कृष्ट छह मास की है। 7. सचित्तत्यागप्रतिमा-सचित्त आहार का सर्वथा त्याग करना। यह प्रतिमा जघन्य एक रात्रि और उत्कृष्ट सात मास की होती है। 8. आरंभत्यागप्रतिमा इस प्रतिमा में स्वयं प्रारंभ नहीं करता, छह काय के जीवों की दया पालता है। इसकी कालमर्यादा जघन्य एक, दो, तीन दिन और उत्कृष्ट आठ मास की है। 9. प्रेष्यत्यागप्रतिमा इस प्रतिमा में दूसरों के द्वारा आरम्भ कराने का भी त्याग होता है। वह स्वयं प्रारम्भ नहीं करता, न दूसरों से करवाता है किन्तु अनुमोदन का उसे त्याग नहीं होता है / काल जघन्य एक, दो, तीन दिन है और उत्कृष्ट काल नौ मास है / 10. उद्दिष्टभक्तत्यागप्रतिमा-इस प्रतिमा में अपने निमित्त बनाया हुआ भोजन ग्रहण नहीं किया जाता है, उद्दिष्ट भक्त का भी त्याग होता है। उस्तरे से सर्वथा शिरोमुण्डन करना होता है। गृह सम्बन्धी विषयों के पूछे जाने पर यदि जानता है तो 'जानता हूँ और नहीं जानता है तो 'नहीं जानता हूँ' इतना मात्र कहे / यह प्रतिमा जघन्य एक रात्रि की, उत्कृष्ट दस मास की होती है / 11. श्रमणभतप्रतिमा- इस प्रतिमा का धारक श्रावक श्रमण तो नहीं किन्तु श्रमण सदृश होता है। साधु के समान वेश धारण करके और साधु के योग्य ही भाण्डोपकरण रखकर विचरता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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