________________ [आवश्यकसूत्र अमेरिकन ऋषि 'थोरो' ने कहा है.-"ब्रह्मचर्य जीवन-वृक्ष का पुष्प है और प्रतिभा, पवित्रता, वीरता आदि अनेक उसके मनोहर फल हैं / " व्यास के शब्दों में—'ब्रह्मचर्य अमृत है।" जो मनुष्य ब्रह्मचर्य रूपी अमृत का आस्वादन कर लेता है, वह सदा के लिये अमर बन जाता है। ब्रह्मचर्य जीवन की विराट साधना है। यदि साधना करते हुए कहीं भी प्रमादवश नौ ब्रह्मचर्य-गुप्तियों का अतिक्रमण किया हो तो उसका प्रस्तुत सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण किया जाता है / ब्रह्मचर्य को भलीभांति सुरक्षित रखने के लिए नव गुप्तियां शास्त्रों में प्रतिपादित की गई हैं / संक्षेप में उनका आशय इस प्रकार है 1. विविक्त-वसति-सेवन स्त्री, पशु और नपुसकों से युक्त स्थान में न ठहरना / 2. स्त्रोकथापरिहार-स्त्रियों की कथा-वार्ता, सौन्दर्य आदि की चर्चा न करना / 3. निषद्यानुपवेशन स्त्री के साथ एक आसन पर न बैठे, उसके उठ जाने पर भी एक मुहूर्त तक उस स्थान पर न बैठे। 4. स्त्री-अंगोपांगादर्शन-स्त्रियों के मनोहर अंग, उपांग न देखे / यदि कभी अकस्मात् दृष्टि पड़ जाय तो उसी प्रकार सहसा हटा ले जैसे सूर्य की ओर से हटा ली जाती है। 5. कुड्यान्तर-शब्दश्रवणादि-वर्जन-दीवार आदि की आड़ से स्त्री के शब्द, गीत, हास्य, रूप आदि न सुने और न देखे / / 6. पूर्वभोगास्मरण-पहले भोगे हुए भोगों का स्मरण न करे। 7. प्रणीत-भोजन-त्याग--विकारोत्पादक गरिष्ठ भोजन न करे / 8. अतिमात्र-भोजन-त्याग-रूखा-सूखा भोजन भी अधिक मात्रा में न करे / आहार सम्बन्धी ग्रन्थों के अनुसार आधा पेट अन्न से भरे, आधे में से दो भाग पानी के लिए और एक भाग हवा के लिए छोड़ दे। शास्त्रानुसार पुरुष साधक का उत्कृष्ट आहार बत्तीस और नारी साधिका का अट्ठाईस कवल है / कवल का प्रमाण भी बता दिया गया है—मयूरी के अंडे जितना / 6. विभूषा-परिवर्जन-शरीर की विभूषा–सजावट न करे। इन नौ ब्रह्मचर्य-गुप्तियों में और शान्ति, मुक्ति, निर्लोभता, आर्जव (सरलता रखना), मार्दव (मान परित्याग), लाघव (द्रव्य भाव से लघुता), सत्य संयम तप ब्रह्मचर्य एवं त्याग, इस प्रकार दस प्रकार के यतिधर्म में जो कोई अतिचार लगा हो तो उससे मैं निवृत्त होता हूँ। ग्यारह उपासक-प्रतिमाएँ देश-विरत श्रावक के अभिग्रहविशेष को प्रतिमा कहते हैं। देव और गुरु की उपासना करने वाला श्रमणोपासक होता है। जब उपासक प्रतिमाओं का आराधन करता है तब वह प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है / ये प्रतिमाएँ ग्यारह हैं / 1. दर्शनप्रतिमा-इस प्रतिमा में श्रावक किसी भी प्रकार का राजाभियोग आदि आगार न रख कर शुद्ध निरतिचार, विधिपूर्वक सम्यग्दर्शन का पालन करता है। इसमें मिथ्यात्व-अतिचार का त्याग मुख्य है। यह प्रतिमा एक मास की होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org