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________________ चतुर्थ अध्ययन / प्रतिक्रमण] [47 क्रियासूत्र जैन परिभाषा के अनुसार प्रस्तुत प्रकरण में हिंसाप्रधान दृष्ट व्यापार-विशेष को 'क्रिया' कहते हैं / विस्तार-पद्धति में क्रिया के 25 भेद माने गये हैं / परन्तु अन्य समस्त क्रियाओं का सूत्रोक्त पांच क्रियाओं में ही अन्तर्भाव हो जाता है, अत: मूल क्रियाएं पांच ही मानी जाती हैं / 1. कायिकी क्रिया काय के द्वारा होने वाली क्रिया कायिकी कहलाती है। इसके तीन भेद माने गये हैं / मिथ्यादष्टि और अविरत सम्यक-दष्टि की क्रिया अविरत-कायिकी कहलाती है, प्रमत्तसंयमी मुनि की क्रिया दुष्प्रणिहित-कायिकी और अप्रमत्तसंयत मुनि की क्रिया सावद्ययोग से उपरत होने के कारण उपरतकायिकी कहलाती है। 2. प्राधिकरणिकोक्रियाजिसके द्वारा आत्मा नरक आदि दुर्गति का अधिकारी होता है, वह पाप का साधन खड्गादि या दुमंत्रादि का अनुष्ठान-विशेष अधिकरण कहलाता है, उससे होने वाली क्रिया। 3. प्राषिकीक्रिया-प्रद्वेष का अर्थ मत्सर, डाह, ईर्ष्या होता है / यह अकुशल परिणाम कर्म-बन्ध का प्रबल कारण माना जाता है। अत: जीव या अजीव किसी भी पदार्थ पर द्वेषभाव रखना, प्राद्वेषिकीक्रिया है। 4. पारितापनिकीक्रिया ताड़न आदि के द्वारा दिया जाने वाला दुःख परितापन कहलाता है। परितापन से निष्पन्न होने वाली क्रिया, पारितापनिको क्रिया कहलाती है। स्व तथा पर के भेद से पारितापनिकी क्रिया दो प्रकार की होती है। अपने आपको परिताप पहुंचाना स्वपारितापनिकी और अन्य प्राणी को परिताप पहुंचाना पर-पारितापनिकी क्रिया है। 5. प्राणातिपातिकीक्रिया-प्राणों का अतिपात या विनाश प्राणातिपात कहलाता है। प्राणातिपात से होने वाली क्रिया प्राणातिपातिकी कहलाती है / इसके दो भेद हैं—क्रोधादि कषायवश होकर अपनी हिंसा करना, स्वहस्त-प्राणातिपातिकी क्रिया है और इसी प्रकार दूसरे की हिंसा करना, पर-प्राणातिपातिकी है। कामगुण-सूत्र प्रस्तुत सूत्र में उल्लेख है कि यदि संयम-यात्रा करते हुए कहां कामगुण अर्थात् पांच इन्द्रियों के विषय----शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श, इन विषयों में मन भटक गया हो, तटस्थता को छोड़ राग-द्वेष युक्त हो गया हो, मोह जाल में फंस गया अर्थात् इष्ट शब्दादि में राग और अनिष्ट में द्वेष उत्पन्न हुआ हो तो उसे वहाँ से हटाकर पुनः संयम-पथ पर अग्रसर करना चाहिये / यही कामगुणों से आत्मा का प्रतिक्रमण है। महाव्रत-सूत्र साधु हिंसा, असत्य, अदत्तादान, आदि का सर्वथा त्याग करता है अर्थात् अहिंसा आदि महाव्रतों की नवकोटि से सदा सर्वथा पूर्ण आराधना करता है, फलतः साधु के अहिंसा आदि व्रत महाव्रत कहलाते हैं। महाव्रत साधु के पांच मूलगुण कहे जाते हैं। इनके अतिरिक्त शेष प्राचार उत्तरगुण कहलाते हैं / उत्तरगुणों की उपयोगिता मूलगुणों की रक्षा में है, स्वयं स्वतन्त्र उनका कोई प्रयोजन नहीं। महाव्रत तीन करण और तीन योग से ग्रहण किये जाते हैं / जीवन पर्यन्त किसी भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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